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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


मंसूर के साथ मेरी फिर भेंट हुई!

इस बार, गानों की किसी महफ़िल में नहीं, बल्कि किताब की दुकान के सामने! मैं बेली रोड के 'पोथीवितान' में दाखिल हो रही थी। अचानक मेरी नज़र बग़ल की वीडियो कैसेट की दुकान पर पड़ी। मंसूर उस दुकान से बाहर आ रहा था। बदन पर सिल्क का कुर्ता, सफ़ेद पायजामा, पैरों में कोल्हापुरी चप्पल! बेहद स्मार्ट लग रहा था।

मैं ठिठकी-सी खड़ी रही। मेरे दिल की धड़कनें तेज़ हो गयीं। मैं गर्दन मोड़ कर, मंसूर को जाते हुए देखती रही। उसके साथी की नज़रें मुझ पर ही गड़ी हुई थीं। उसकी मंसूर को भी शायद पीछे मुड़ कर देखने का इशारा किया। मंसूर ने पलट कर मुझे देखा। मैं ठहरी काली-कलूटी लड़की। मेरी तरफ़ भला वह क्यों देखता? लेकिन, मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा। मंसूर सचमुच मुझे ही देख रहा था। उसकी निगाह मझ पर से हट ही नहीं रही थी। बग़ल में खड़ी सफ़ेद कार के दरवाजे पर हाथ रख कर, मेरी तरफ़ नज़रें गड़ाए-गड़ाए, वह शायद यह याद करने की कोशिश कर रहा था, यह चेहरा उसने पहले कहीं देखा है या नहीं। मंसूर का हाथ टोयटा करोला कार के दरवाज़े पर, उसकी आँखें मेरी आँखों में! मैं भी उसकी तरफ़ मन्त्रमुग्ध हो कर देखती रही। मेरी ख़ाला, किताब की दुकान के अन्दर किताबें देख रही थी और मैं मंसूर में खोई, बाहर खड़ी थी।

इस घटना ने मुझे बेहद अचरज में डाल दिया।

असल में मैंने एक बात बखूबी समझ ली है कि किसी भी वन्द दरवाजे के फाँक-दरारों से हो कर, और कोई भले अन्दर न जा सके, मगर प्रेम दाखिल हो जाता है। जन्म से ही मैं जंजीर-बँधी लड़की हूँ। बेहद छोटे-से दायरे में रहती हूँ मैं। मेरे कमरे में रोशनी-हवा आती है, यही काफ़ी है। उँगलियों पर गिने जाने लायक़, कुल चन्द जाने-पहचाने रिश्तेदारों को, मेरे कमरे में आने-जाने का हक़ है। इसके बावजूद, मन-ही-मन, मैं मंसूर को अपने साथ अन्दर ले आयी। मंसूर जैसे मेरे पढ़ने की मेज़ के सामने बैठा है, मैं बिस्तर पर पाँव उठाये, गोद में एक तकिया दबाये बैठी हूँ। तकिये पर कोहनी गड़ाये मैं उसे देख रही हूँ, उसका असम्भव सौन्दर्य निरख रही हूँ। वह मेरी किताब-कॉपियाँ उलटते-पलटते, मेरी ही कोई कविता में मगन हो गया है। कविता शायद यूँ है-

जीवन गुज़रता जाता है...
मैं उसे कस कर बाँधे रखती हूँ,
राह रोक कर खड़ी हो जाती हूँ,
लेकिन, भला वह सुनता है मेरी बात?
यह जीवन मेरा ही है, फिर भी,
नहीं मानता मेरा आदेश,
दौड़ जाता है तुम्हारी ओर!
कैसी सिरचढ़ा है, देखो,
मैं पड़ी रहती हूँ निःस्व! अकेली!
घर के सन्नाटे में!
तमाम सुख-समृद्धि पीछे फेंक कर,
मेरा हुक्म ठुकरा कर,
पहुँच जाता है, तुम्हारे चरण-स्पर्श के लिए!

वह कविता वह ज़ोर-ज़ोर से पढ़ता रहा। मेरी ओर देखता भी रहा!

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