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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


चाय पीते-पीते उन्होंने ख़ाला से कहा, 'ज़िन्दगी आखिर कितने दिनों की है, बताओ? अभी है, अभी ख़त्म हो जायेगी। इतने-से जीवन में तुम ही सब कुछ बनी रहीं।'

हालाँकि वे काफ़ी धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे, लेकिन मैं कान लगाए, सब सुन रही थी। दिखाने को मैं एक किताब के पन्ने उलट-पलट रही थी, लेकिन मन उसी तरफ़ लगा हुआ था।

ख़ाला ने कहा, 'बहुत जल्दी ही मेरे जीवन में उलट-पलट होने वाला है, तुम देखना।'

मेरे विस्मय की मूर्छना ही नहीं कट रही थी। यह मैं कौन-सी दुनिया में आ पड़ी हूँ? ख़ाला किसके साथ यूँ घनिष्ठ हो कर बैठी है? इतने प्रेम भरे अन्दाज़ में आख़िर वह किससे बातें कर रही है? यह तो गुनाह है!

घर लौटते-लौटते ख़ाला ने कहा, 'सुन, दीदी से कुछ मत कहना समझी?'

मैं काफ़ी गम्भीर मुद्रा में बैठी थी।

मैंने सवाल किया, 'लेकिन उस शख्स से तुम्हारा क्या रिश्ता है, यह बताओ?'

'मैं उससे प्यार करती हूँ।' ख़ाला ने जवाब दिया।

'प्यार करती हूँ...क्या मतलब?'

'प्यार करती हूँ, मतलब, प्यार करती हूँ।'

'फिर...ख़ालू...?'

'तेरे ख़ालू, मेरे शौहर हैं। मेरे प्रेमी नहीं हैं, सिर्फ़ पति हैं। मैं उसके साथ सोती हूँ। वह मेरी देह के साथ क्या सब करता रहता है। सुबह-सुबह घर-ख़र्च थमा कर वह बाहर निकल जाता है।'

मेरा सिर बेतरह चकराने लगा। यह कैसी ज़िन्दगी है?

'तुम्हारा यह रंग-ढंग सही नहीं है, ख़ाला! तुम ख़ालू को धोखा दे रही हो।'

'वह मुझे कितना धोखा दे रहा है, शीलू, तू बड़ी होगी, तो किसी दिन समझेगी। ज़फ़र बेहद भलामानस है, री! अगर ज़फ़र न होता, तो मेरा जीना नामुमकिन होता।'

'उससे तुम्हारा कितना-सा रिश्ता है?'

ख़ाला के बोलने के लहज़े में उदासीनता थी, मगर आवाज़ में एक किस्म का ज़ोर झलक उठा, 'पूरा रिश्ता है! भरपूर रिश्ता!'

'तुम पर मुझे भयंकर गुस्सा आ रहा है, ख़ाला। ख़ालू को अगर पता चल जाये, तो क्या होगा, कभी सोचा है?'

'तेरे ख़ालू को पता चल भी जाये, तो कुछ नहीं होगा, मैं कहे देती हूँ! तू देख लेना।'

'क्यों, वे कुछ नहीं कहेंगे?'

'कुछ भी नहीं कहेगा! कुछ बोलने की उसमें हिम्मत ही नहीं है। वह कुछ बोलने लायक़ ही नहीं है।'

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