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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


मैं यह देख कर ही दम लूंगी कि मुझे ख़त लिखे बिना, मंसूर कितने दिनों रह पाता है! कितने दिनों वह अपने को पत्थर बनाये रख सकता है, मैं देखूगी।

घर के क़रीब ही पोस्ट-ऑफ़िस! मैं ख़त लिख कर, घर के छोकरे नौकर के हाथ पर रख देती हूँ, वह लेटर-बॉक्स में डाल आता है। कभी-कभार ख़ाला के हाथ में भी थमा देती हूँ। कभी मैं खुद ही डाल आती हूँ। लेकिन जवाब नहीं आया।

दो महीने गुज़र गये। तीन महीने भी गुज़र गये। मैं रंग में भंग नहीं डालती।

तुलसी से भेंट होते ही, मैंने दरयाफ़्त किया, 'तेरे यहाँ गाने की महफ़िल अब नहीं लगेगी?'

'क्यों, मंसूर भाई को देखने का मन हो रहा है?' उसने पलट कर पूछा।

मंसूर का नाम सुनते ही, मेरी छाती कैसी तो धक्क् रह जाती है। मंसूर! वह क्या सचमुच मन का सूर है? मेरे मन में तो उसी का सुर बजता रहता है। मैं उसे समझा नहीं पाती। मैं ख़त में उससे अपनी बात करती हूँ और ख़त की भाषा, वह नहीं समझता, वर्ना एक चिरकुट ही सही, वह मुझे लिखता तो सही!

मैं ऐसी बदनसीब लड़की हूँ, इतनी अभागी हूँ कि मेरी तरफ़ कोई भी निगाह नहीं देखता। यह जो प्यार-प्यार की रट लगाती हुई, मैं कातर हुई जा रही हूँ, मेरे प्यार का मानस, मेरी तरफ़ पलट कर भी नहीं देखता।

एक दिन संन्यासी मामा अचानक मेरे घर हाज़िर हुए। मैं अपने पढ़ने की मेज़ पर सिर टिकाये, सच ही, रो रही थी। अपने को बेहद अस्पृश्य, बेहद बिरादरी-बाहर होने का एहसास हो रहा था। यह जो अब्बू, माँ, भाई-बहनों ने मुझे चारों तरफ से घेर रखा है, उनमें से कोई भी मेरा अपना नहीं है। ये लोग ही किसी दिन मुझे घर-बाँधकर, किसी अपरिचित-अचीन्हे मर्द से मुझे ब्याह देंगे, जिसे मैंने अपनी तरुणाई के शुरुआती दिनों में इतनी शिद्दत से चाहा, उसे मैं नहीं पा सकी। प्रत्याखयान...ख़ारिज कर देने के अलावा, उसने मेरे लिए कोई प्राप्य नहीं रखा। यही सब सोचते-सोचते, ढेर सारा दर्द मेरी आँखों में उमड़कर उतर आया। लाचारी में, मैं मेज़ पर सिर टिकाये बैठी थी।

संन्यासी मामा ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा, 'रो रही है? चल, रो ले! खूब ज़्यादा आँसू न बहें, तो मन का कूड़ा-कर्कट साफ़ नहीं होता।'

मैंने सिर नहीं उठाया।

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