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उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


तुलसी को मैंने आड़ में ले जा कर पूछा, 'नया पलटन में कौन-सा मकान मंसूर का है? वहाँ एक विज्ञापन-फ़र्म है, उसके किस तरफ़?'

तुलसी ने अपनी जुबान काट कर कहा, 'हे राम, मैं तुझे यही तो बताना चाहती थी। साल भर हुए, मंसूर भाई और उनका परिवार, नया पलटन से गुलशन चले गये हैं! अपने मकान में!'

मेरे तन-बदन का रक्त-संचार अचानक एकदम से रुक गया। मैंने साफ़ महसूस किया, छाती के अन्दर धड़ाम से कुछ गिरा हो। मेरा सिर चकराने लगा। आँखों के आगे धुंधलका छा गया। तुलसी का चेहरा, मेरे पढ़ने की मेज़, किताब-कॉपियाँ, तकिया-बिछौना, काठ की अलमारी, कमरे की दीवार-खिड़कियाँ, सिर के ऊपर घूमता हुआ पंखा-सारा कुछ धुंधला हो आया! सारा कुछ हिल उठा। सामने कुर्सी पड़ी थी, मैं धम्म से बैठ गयी। मेरी समूची देह निस्तेज और अवश हो आयी।

मैंने दुबारा पूछा, 'क्या कहा तूने? वे लोग नया पलटन में नहीं रहते?'

'अरे, नहीं! उस दिन भइया ने बताया-मंसूर के घर में पार्टी थी। में उसी पार्टी से आ रहा हूँ। क्या विशाल कोठी है! गुलशन के दस नम्बर रोड पर!'

'गुलशन?'

'हाँ, गुलशन में! उनका अपना मकान!'

'तो नया पलटन में कैसा घर था?'

'नया पल्टन में वे लोग किराये के मकान में रहते थे, क्योंकि उस वक़्त तक, गुलशन में उनका अपना मकान पूरी तरह बन कर तैयार नहीं था। सुना है, अब तो 'वारिधारा' में भी उन लोगों का कोई मकान बन रहा है।'

बहरहाल, कहाँ, कौन-सा मकान बन रहा है, यह जानने में, मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

उस रात मेरी जगी-जगी आँखों से लगातार बेभाव आँसू बहते रहे। मेरे लिखे हुए इतने सारे ख़त, एकबारगी कूड़े के ढेर में चले गये, यह जान कर, मेरे सीने के अन्दर लहराता हुआ-हरा-भरा जंगल, एकदम से रेगिस्तान हो आया।

तुलसी ने फुसफुसा कर पूछा, 'शीला, तू ऐसी क्यों हो रही है?'

-शीला, तू ऐसी क्यों हो रही है-यह मैंने तुलसी रानी को किसी हाल भी समझने नहीं दिया।

उस दिन तुलसी काफ़ी देर तक बैठी रही।

माँ ने उससे पूछा भी, 'आज तुम्हें अपने घर में कोई काम नहीं है।ऽ

फिर भी तुलसी बैठी रही।

उसने धीमी आवाज़ में फिर कहा, 'रूमू की ख़बर जानती है? पिछली शाम उसकी मँगनी हो गयी।

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