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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


दुकान की चीजें उलटते-पलटते हुए, मैंने फुसफुसा कर जवाब दिया, 'हाँ, बे-हद ज़रूरत है।'

अपनी जेब से एक कार्ड निकाल कर मंसूर ने मेरे हाथ में थमा दिया। उसकी छाती भी धक-धक कर रही थी।

नादिरा की आवाज़ पर मेरी मुग्धता टूटी, इतनी-सी देर में उसने गिफ्ट खरीद ली थी।

बिल चुका कर, उसने मुझे आवाज़ दी, मंसूर वहाँ से हट गया।

'कौन है वह?' नादिरा ने पूछा।

'तू ही अन्दाज़ा लगा, वह कौन है!'

नादिरा ने मेरी हथेली कस कर थाम ली और हँसते हुए पूछा, 'तू कितनी चुप्पी लड़की है, री! हम लोगों को तो तूने कुछ नहीं बताया! नाम क्या है, री?'

'मंसूर!'

हम दोनों ने एक स्कूटर ले लिया।

रास्ते में नादिरा बार-बार कहती रही, 'तेरा प्रेमी बेहद हैंडसम है, री! खूबसूरत लवर है।'

'लवर' शब्द सुन कर, मुझे बेहद अच्छा लगा। साथ ही मन कहीं उदास हो गया। मंसूर क्या वाक़ई मेरा ‘लवर' है? मंसूर के प्रति मैं तो अपना सारा प्यार उँडेले दे रही हूँ। लेकिन उसे इस प्यार की ख़बर तो दी ही नहीं गयी। अगर उसे एक बार भी मेरे मन की ख़बर होती, तो क्या वह यह कहे बिना रह पाता-शीला, मैं तुम्हारे लिये सात समुन्दर, तेरह नदी पार कर सकता हूँ। मंसूर को इसकी जानकारी नहीं थी, तभी तो, वह इस क़दर ख़ामोश था। मुझे ही उससे बात करनी पड़ी। मुझे ही उसके घर का पता माँगना पड़ा। कार्ड पर लिखा हुआ था-मंसूर अहमद चौधरी, घर का नम्बर, सड़क-नम्बर, गुलशन, ढाका-सभी कुछ लिखा हुआ था। उसके नीचे दो फ़ोन नम्बर भी अंकित थे। फ़ोन नम्बर देख कर, मुझे ख़याल आया कि अब मैं जब चाहूँ, उससे फ़ोन पर सम्पर्क कर सकती हूँ। मंसूर अब मेरे बेहद क़रीब है। कौन कहता है कि रूपवान इन्सान, अहंकारी होते हैं? मैंने तो मंसूर में कोई अहंकार नहीं देखा। जब उसने हाथ बढ़ा कर, अपना कार्ड, मेरे हाथों में थमाया, मैंने दोनों के हाथों का रंग मिला कर देखा, उसकी हथेली, मेरी हथेली से गोरी है। उसकी त्वचा, मेरी त्वचा से शायद चिकनी और कोमल है।

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