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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


उसके बाद बारह वर्ष से लापता प्रिय साले मुनीर को साथ ले कर अब्बू घर लौटे। अपने संन्यासी भाई को देखते ही, माँ ने बेभाव रोना शुरू कर दिया। हम सब भाई-बहन, मामा को घेर कर बैठे रहे। मामा बारह वर्ष कहाँ रहे, क्या करते रहे, यह जानने के लिए हम लोग उनके पीछे पड़ गये। लेकिन मामा ने कुछ नहीं बताया। वे बस, हँसते रहे।

अब्बू ने कहा, 'अब, यह दाढ़ी-वाढ़ी साफ़ करके, ज़रा इन्सान बनो। बीवी को तो खो ही दिया, अब तो घर लौटो।'

'सुरमा घर में नहीं है?' मामा ने बेतरह अचकचा कर पूछा।

हम सबने एक-दूसरे की तरफ़ विस्मित निगाहों से देखा। उस वक़्त मामा खाना खा रहे थे। अचानक वे खाना छोड़ कर उठ गये और हाथ धो कर, घर से बाहर निकल गये। हम लोग उन्हें पीछे से खींच कर या उन्हें आवाज़ दे कर, किसी हाल भी, रोक नहीं पाये।

वही मामा अब अकसर आने-जाने लगे हैं।

आते ही वे ज़ोर का ठहाका लगा कर आवाज़ देते हैं, 'क्यों भई, कहाँ हो तुम लोग? आओ, आओ, इधर आओ। बताओ कहानी सुनोगे या मैजिक देखोगे?'

हम सब कौतूहल और कौतुक से घेर कर बैठ जाते हैं। हम लोग से मतलब है-मैं, मेरे एक बड़े भाई, दो छोटी बहनें!

एक दिन, इन्हीं मामा ने मुझे उदास देख कर पूछा, 'क्या बात है? उदास क्यों है? जो चाहती है, वह मिलता नहीं, इसलिए?'

मैं हँस पड़ी, 'बिल्कुल यही बात है, मामा! बताइये तो मैं करूँ क्या?'

मामा ने कहा, 'अगर तू शिद्दत से...खूब मन से कुछ चाहे, तो मिलेगा।

मंसूर के लिए मेरा ध्यान में बैठने का मन होता है। ध्यान किया जाये, तो आराध्य धन मिल जाता है। लेकिन कभी-कभी मेरे मन में यह सवाल भी जागता है कि अगर यह सच है, तो मामा जो तिब्बत की किसी गुफा में पूरे बारह वर्ष गुज़ार कर लौटे हैं, उन्हें क्या मिला? मामा क्या उसी गुफा में बैठ कर ध्यान का सबक सीख आये हैं? वे किसका ध्यान कर रहे थे? संसार-समाज, आत्मीय-स्वजन, अनिन्द्य सुन्दरी बीवी को छोड़ कर, वे किसके ध्यान में बैठे थे? मामा की जिन्दगी की यह रहस्यमयता भेद करना, मेरे लिए कभी सम्भव नहीं हुआ।

यह ढाका शहर! छोटा-सा, इत्ता-सा शहर! इस शहर में, मंसूर नामक वह लड़का जाने कहाँ तो रहता है! उस लड़के का आदि-अन्त, अता-पता जानने के लिए, मैं आकुल-व्याकुल हो आयी हूँ।

***

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