उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
शुक्रवार की सुबह,
अब्बू दफ़्तर नहीं गये।
वे सीधे श्यामली, संन्यासी मामा के मटकोठे में पहुंचे और भाई तथा तुलसी, दोनों को घर लिवा लाये। माँ उन दोनों को अपनी छाती से लगा कर, खूब-खूब रोयीं। मुझे भी बेहद खुशी हुई।
मैंने तुलसी का गाल मसल कर कहा, 'कैसा कमाल का काण्ड किया तूने! तेरे मन में यह कुछ था?'
‘अब यह तू-तुकारी नहीं चलेगा। अब 'तुम' कहना पड़ेगा।'
भाई ने भी कहा, 'अपनी भाभी को 'तू' कह रही है?"
मुझे इतनी ज़ोर की हँसी आयी-अभी कल की लड़की, तुलसी! आज माथे पर पल्ला डाल कर, 'भाभी' सज कर बैठी है। उसे देख कर मैंने भी मन-ही-मन, अपने माथे पर पल्ला डाला और कलपना करती रही कि मंसूर के घर में, इस रूप में मैं कैसी दिसूंगी। कौन जाने, मुझे भी तुलसी की तरह, ऐसा ही कोई हथकण्डा इस्तेमाल करना होगा या नहीं।
तुलसी दोपहर को ही बावर्चीख़ाने में चली गई। मेरी माँ को आराम से 'माँ' बुलाने लगी। यह-वह काम करने में भी जुटी रही। यह सब देख कर, मुझे ताज्जुब होता रहा। तुलसी ने खाना पकाना कब सीखा?
तुलसी को मैंने मंसूर के बारे में कुछ नहीं बताया।
शाम को उससे गपशप के इरादे से मैंने कहा, 'चल, छत पर चलते हैं।
'रुक जा, माँ से कह आऊँ।'
माँ की अनुमति ले कर, तुलसी छत पर चली आयी।
उसने माथे पर बिन्दी लगायी थी। वह बहुत सलोनी लग रही थी। वे मेरे भाई की दुल्हन थी। तुलसी नामक पड़ोसन सहेली से अब, वह ज़्यादा अपनी और सगी लगी। बल्कि उसे तो अब एक ‘सरप्राइज' दिया जाये। जैसे उसने हम सबको बिना बताये, भाई से विवाह करके, एक सरप्राइज़ दिया, वैसे मैं भी मंसूर से जम कर इश्क़ करूँगी और अचानक उससे विवाह कर लूँगी और तुलसी से पूछूगी-'देखो, इसे पहचानती हो या नहीं?'
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