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कविता संग्रह >> लिपिका

लिपिका

रवीन्द्रनाथ ठाकुर (अनुवादक देवी प्रसाद)

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8042
आईएसबीएन :9788126720095

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रवीन्द्रनाथ ठाकुर का सबसे पहला गद्य-काव्य संग्रह...

Lipika -A Hindi Book by Ravindranath Thakur

‘लिपिका’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर का सबसे पहला गद्य-काव्य संग्रह है। किन्तु इसकी केवल एक को छोड़कर और कोई रचना कविता के तौर पर, यानी कविता आवृत्ति के छन्द के हिसाब से कभी प्रस्तुत नहीं की गई। ‘प्रश्न’ नाम की रचना को सन् 1911 में, पुस्तक प्रकाशित होने के तीन साल पहले, ‘भारती’ पत्रिका में कविता के छन्द के अनुसार छापा गया था। तो भी अगस्त, 1922 में पुस्तक प्रकाशित करने के समय कविगुरु ‘लिपिका’ को कविता संग्रह के तौर पर छापने का साहस नहीं कर पाए। उन्होंने स्वयं ही लिखा है : ‘छापने के समय वाक्यों को पद्य की तरह तोड़ना नहीं हुआ-मैं तो मानता हूँ कि इसका कारण मेरी कायरता ही था।’

जो भी हो, ‘लिपिका’ वह कृति है जो मनुष्य के हृदय और बुद्धि की गहरी परतों को सर्वश्रेष्ठ कला के माध्यम से ऊपर उभारकर पाठक के सामने रख देती है। हर रूपक को पढ़कर एक दर्शन होता है और साथ-साथ अपने-आपको टटोलने की तरफ एक इशारा भी मिलता है।

इस कृति की तरफ हिन्दी साहित्य जगत का ध्यान उतना नहीं गया है, जितना, मैं मानता हूँ, जाना चाहिए। मेरे लिए तो इसका अनुवाद करना आनन्द का एक बड़ा स्रोत्र रहा है। इसके कारण गुरुदेव का जो सामीप्य मिला वह अपूर्व और बड़ा महत्त्वपूर्ण है। पाठकों के साथ इसमें भागीदारी करने का मौका मिला है, उसके लिए कृतज्ञ हूँ।
-भूमिका से

रवीन्द्रनाथ ठाकुर


जन्म – 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं-भारत का राष्ट्रगान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
कृतियाँ – गीतांजलि, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं।
सम्मान - ‘गीतांजलि’ के लिए उन्हें सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
निधन – 7 अगस्त, 1941।

पैदल का रास्ता



यही तो है पगडंडी। पैदल का रास्ता।
जंगल से होकर मैदान में, मैदान के बीच से नदी के किनारे, नौका घाट के पास वटवृक्ष के नीचे आ पहुँचा। उसके बाद वह उस पार के टूटे हुए घाट से मुड़कर गाँव में चला गया। फिर अलसी के खेत के किनारे-किनारे अमराही की छाया में से पद्मपोखर के बाँध पर होता हुआ रथचौक और फिर न जाने किस गाँव में जा पहुँचा !

इसी रास्ते से कितने लोग गए। कोई तो मेरे पास से ही गुजरा, किसी ने मेरा साथ लिया, कोई-कोई दूर से ही दिखाई दिए, किसी का घूँघट था, किसी का नहीं, कोई पानी भरने जा रही है और कोई पानी लेकर वापस लौट रही है।

2


अब तो बीत गया दिन। अँधेरा होने लगा।

आज धुँधली सन्ध्या में एक बार पीछे मुड़कर आँख उठाई, देखा, यह रास्ता है अनेक भूले हुए पदचिह्नों की पदावली, भैरवी स्वरों में बँधी।

जितने पथिक युगों से इस रास्ते पर चले गए, उनके जीवन की सारी कहानी इसने अपनी एकमात्र धूलि-रेखा से संक्षेप में अंकित कर रखी है। यही एक रेखा चली है, सूर्योदय से सूर्यास्त की ओर, सोने के एक सिंहद्वार से दूसरे सिंहद्वार की ओर।

3


‘ओ पैदल के रास्ते, अनेक काल की अनेक कहानियों को अपने धूलि-बन्धन में नीव बनाए न रख। मैं तेरी धूलि में कान लगाए हूँ, मुझे कान में बता दे।’’
रास्ता अँधेरी रात के काले पर्दे की तरफ तर्जनी दिखाकर चुप रहता।
‘‘ओ पैदल के रास्ते, इतने पथिकों की इतनी चिन्ताएँ, इतनी इच्छाएँ, सब गईं कहाँ ?’’

गूँगा रास्ता कुछ नहीं कहता। केवल सूर्योदय की तरफ से सूर्यास्त तक इशारा किए रहता है।

‘‘ओ पैदल के रास्ते, तेरी छाती के ऊपर जो सब चरण-पात एक दिन फूलों की वर्षा की तरह पड़े थे, आज क्या वे कहीं नहीं हैं ?’’

रास्ता क्या अपने उस छोर को जानता है, जहाँ लुप्त-फूल और स्तब्ध गीत पहुँचे हैं, और जहाँ चलता है तारिकाओं के प्रकाश में अनन्त वेदना का दीपावली उत्सव।


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