सामाजिक >> होशियारी खटक रही है होशियारी खटक रही हैसुभाष चंद्र कुशवाहा
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गाँव की जिन्दगी के तीनों पक्ष सुभाष की इन कहानियों में हैं - जिन्दगी की प्रकृति, उनकी संस्कृति और उनके भीतर मौजूद विकृति।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमंडलीकरण के कारण भारतीय समाज में आर्थिक और सामाजिक रचनाएँ ही नहीं बदली हैं बल्कि अनुभूति की संरचनाएँ भी बदली हैं। स्वभाव में, संवेदना में और सोच में भी परिवर्तन हुआ है। इसके क्या-क्या परिणाम हो सकते हैं वे सुभाष की कुछ कहानियों में दिखाई देंगे।... भाषा और संवेदना का बहुत गहरा रिश्ता होता है। भाषा में जो संवेदना व्यक्त होती है, वह जिस परिवेश से आती है, उस परिवेश में जो भाषा चलती है, वह भाषा ही संवेदना को रूपायित करती है। इसलिए सुभाष की कहानियों में भाषा का संवेदना से, संवेदना की जीवन के यथार्थ से, जीवन के यथार्थ का जीवन की परिस्थितियों से, जीवन की परिस्थितियों का समाज के स्वरूप से और समाज के स्वरूप का इतिहास की व्यापक प्रक्रिया से संबंध दिखाई देता है और इस कारण से ये कहानियाँ आकर्षक और महत्त्वपूर्ण लगती हैं। सुभाष की कहानियाँ गाँव को समझने में हमारी मदद करती हैं। गाँव की जिन्दगी के तीनों पक्ष इन कहानियों में हैं - जिन्दगी की प्रकृति, उनकी संस्कृति और उनके भीतर मौजूद विकृति। जो बात मुझे अच्छी लगती है वो ये कि सुभाष के साथ अपने सामाजिक परिवेश के प्रति तीव्र उत्सुकता है और साथ ही सतर्क संवेदनशीलता भी।
- मैनेजर पांडेय
सुभाष चन्द्र कुशवाहा नई पीढ़ी के कथाकारों में ग्रामीण परिवेश का झंडा उठाने वाले कुछ गिने-चुने लेखकों में से हैं। उनकी कहानियों में अतीत की जुगाली के बजाय आज की ज्वलंत समस्याओं से मुठभेड़ की स्थितियाँ देखने को मिलती हैं। गाँवों को संक्रमित करने वाले संचार माध्यमों के में ‘रोटी-नून’ के बजट का पैसा कैसे टीवी, मोबाइल, पिक्चर के खाते में चला जाता हैं, यह इनकी कहानियाँ मुखर ढंग से बताती हैं। गाँव की पार्टीबंदी, जातिवाद, मुकदमेबाजी, शराबखोरी, मनचलापन, नई पीढ़ी का घर बेच तमाशा देख का सिद्धांत इनकी कहानियों में जहाँ-तहाँ देखने को मिलता है। दलित, पिछड़े, स्त्रियाँ, जुलाहे, धुनिया इनकी कहानियों के कैनवास पर चटक रंग में नम्रदार होते हैं।
- शिवमूर्ति
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
सुपरिचित कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का जन्म 26 अप्रैल 1961 को हुआ था। ‘आशा’ (1994), ‘कैद में है जिन्दगी’ (1998), दोनों कविता-संग्रहों के बाद ‘हाकिम सराय का आखिरी आदमी’ (2003) और ‘बूचड़खाना’ (2006) कहानी-संग्रह प्रकाशित। गजल-संग्रह ‘गाँव हुए बेगाने अब’ (2004) के अलावा संपादित पुस्तकें - ‘कथा में गाँव’(2006), ‘जातिदेश की कहानियाँ’(2009) कथा-संचयन और लोक-संस्कृतियों के निरूपण से संबद्ध ‘लोकरंग-1’ (2009) भी प्रकाशित। तमाम महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों के अलावा कई महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी केन्द्रों से रचनाएँ और भेंटवार्ताएँ प्रसारित। सृजन-सम्मान और प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान और परिवेश सम्मान से सम्मानित।
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