उपन्यास >> बाबल तेरा देश में बाबल तेरा देश मेंभगवानदास मोरवाल
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भगवान दास मोरवाल का मुस्लिम परिवेश को आधार बनाकर लिखा एक सामाजिक उपन्यास...
Babal Tera Desh Mein by Bhagwan Das Morwal
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘बाबल तेरा देश में’ आख्यान है स्त्री के उन दुखों का, जो अपने ही घर के असुरक्षित, अभेद्य किले में कैद हैं। इसकी रेहलगी, बजबजाती अन्धी सुरंगों में कहीं पिता, तो कहीं भाई, कहीं ससुर, तो कहीं-कहीं पति के रूप में एक आदमखोर भेड़िया घात लगाए बैठा है; और जिसके हरेक नाके पर तैनात है एक पहरेदार अपने हाथ में थामे धर्म-ग्रन्थों के उपदेशों एवं तथाकथित आदेशों की धारदार नुकीली बरछी।
‘बाबल तेरा देश में’ में इसी किले की पितृसत्तात्मक ईंट-गारे से चिनी मजबूत दीवारों और महराबों को बीच दादी, जैतूनी, असग़री, जुम्मी, पारो, शकीला, शगुफ्ता, समीना, ज़ैनब, मैना और मुमताज़ का मौन प्रतिवाद है वह भी बाहर की दुनिया से नहीं बल्कि हाजी चाँदमल, दीन मोहम्मद, हनीफ, फौजी जगन प्रसाद, मुबारक अली तथा कलन्दर जैसे अपने ही घरों के पहरुओं से।
यह विमर्श नहीं है समृद्ध संसार की स्त्रियों की उस मुक्ति का, जो उन्हें कभी और कहीं भी मिल सकती है, अपितु यह अपनी निजता और शुचिता बचाए रखने का लोमहर्षक उपाख्यान भी है। लोक-जीवन और किस्सागोई की तरंगों से लबरेज़ यह एक ऐसे जीवन्त समाज का आख्यान भी है, जो पाठकों को कथा-रस के विभिन्न आस्वादों तथा अपने अभिनव कला-पक्ष से मुठभेड़ कराता, रेत-माटी से सने पाँवों की ऊबड़-खाबड़ मेड़ों पर, जेठ की तपती धूप में चलने जैसा अहसास दिलाता है। भगवानदास मोरवाल का यह उपन्यास ‘बाबल तेरा देश में’ निःसन्देह उस अवधारणा को तोड़ता है कि आज़ादी के बाद मुस्लिम परिवेश को आधार बनाकर उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं।
‘बाबल तेरा देश में’ में इसी किले की पितृसत्तात्मक ईंट-गारे से चिनी मजबूत दीवारों और महराबों को बीच दादी, जैतूनी, असग़री, जुम्मी, पारो, शकीला, शगुफ्ता, समीना, ज़ैनब, मैना और मुमताज़ का मौन प्रतिवाद है वह भी बाहर की दुनिया से नहीं बल्कि हाजी चाँदमल, दीन मोहम्मद, हनीफ, फौजी जगन प्रसाद, मुबारक अली तथा कलन्दर जैसे अपने ही घरों के पहरुओं से।
यह विमर्श नहीं है समृद्ध संसार की स्त्रियों की उस मुक्ति का, जो उन्हें कभी और कहीं भी मिल सकती है, अपितु यह अपनी निजता और शुचिता बचाए रखने का लोमहर्षक उपाख्यान भी है। लोक-जीवन और किस्सागोई की तरंगों से लबरेज़ यह एक ऐसे जीवन्त समाज का आख्यान भी है, जो पाठकों को कथा-रस के विभिन्न आस्वादों तथा अपने अभिनव कला-पक्ष से मुठभेड़ कराता, रेत-माटी से सने पाँवों की ऊबड़-खाबड़ मेड़ों पर, जेठ की तपती धूप में चलने जैसा अहसास दिलाता है। भगवानदास मोरवाल का यह उपन्यास ‘बाबल तेरा देश में’ निःसन्देह उस अवधारणा को तोड़ता है कि आज़ादी के बाद मुस्लिम परिवेश को आधार बनाकर उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं।
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