लोगों की राय

उपन्यास >> पशुपति

पशुपति

राजश्री

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :530
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8174
आईएसबीएन :9788126723546

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

430 पाठक हैं

पशुपति उपन्यास का आधार संस्कृति का स्थापना और विध्वंस है।

Pashupati by Rajshree

पशुपति उपन्यास का आधार संस्कृति का स्थापना और विध्वंस है। इस उपन्यास के दो प्रमुख नायक हैं- वैदिककालीन महाअसुर वरुण व महारुद्र शिव। इस उपन्यास के ये दो महानायक भारतीय संस्कृति के इतिहास से सम्बन्ध रखते हैं। इनके आचरण से मिलने वाली शिक्षा हर युग में युगपरक है।

जम्बूद्वीप के सर्वश्रेष्ठ देश भारत की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कथा विश्व के किसी भी देश के लिए सत्य है। इस कथा से ज्ञात होता है कि विचारों की सरलता में, विषमता व जटिलता का समावेश सभ्यता के साथ होता जाता है। सीधी रेखाओं से किस प्रकार न सुलझने वाली गाँठ बन जाती है - ऐसी गाँठ, जो मानव को पग-पग पर अपने में बाँधती है? शिव जिन्हें पुराणों में सृष्टि संहारक कहा गया है उन्होंने विश्व की रक्षा के लिए हलाहल का पान किया। संहार व रक्षा एक-दूसरे के विपरीत हैं। जो संहार करता है, उसने विषपान क्यों किया? क्या था यह विषपान? आज विश्व पुनः उसी अवस्था में है जहाँ महारुद्र शिव का हलाहल-पान भी विध्वंस को नहीं रोक सका था

यदि मानव मौलिक सरलता खोता है तो परिणाम विध्वंस है। जिस संस्कृति के विस्तार का स्वप्न इन युगपुरुषों ने देखा, वह आज हमारा दायित्व है। हम संस्कृति के मानवीय भाव व प्रकृति को समझें। इस कथा का प्रारम्भ प्रकृति करती है। वह मानव को यह समझाना चाहती है कि विध्वंस व विसर्जन में भेद है। समय मानव-मस्तिष्क की विभिन्न अवस्थाओं - कद्रू के स्वप्न, वराह की रेखाएँ और बाबा देवल की लोककथा के माध्यम से कहता है। कद्रू अचेतन, वराह चेतन, बाबा देवल लोकमानस में चेतन-अचेतन से बनने वाली कहानी का प्रतीक हैं। इनके माध्यम से युग-विशेष के विचारों की दिशा व विषमता ज्ञात होती है।


प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book