उपन्यास >> बिढार बिढारभालचन्द्र नेमाड़े
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बिढार...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बिढार का मतलब है अपने कंधे पर अपनी गृहस्थी का भार लादे हुए भटकना। इस दिक्-काल से परे की भटकन का मकसद है, गौतम बुद्ध की तरह संबोधि प्राप्त करना। अपने आपको, अपनों को, अपनापे को पाना। बिढार के चांगदेव की यह भटकन, भाषा-प्रदेश और काल को लाँघकर सार्वजनीन और बींसवी शताब्दी के डॉक्युमेन्ट्स को लेकर सार्वकालिक बन जाती है। यह कहीं भी ख़त्म न होने वाली भटकन, जिसका प्रारम्भ 1962 में हुआ था, वह बिढार (1975), ‘जरीला’ (1977) और ‘झूल’ (1979) को पार कर अब आगे के मुकाम ‘हिन्दु’ की और अग्रसर है। यह परकाया प्रवेश करने वाले एक की आपबीती है जो अपने विस्तार में अनेक को समाहित करने का सामर्थ्य रखती है।
यह मानव-सभ्यता की कैसी विडम्बना है कि सृजन-क्षमता के विनाश को स्वीकार किए बिना मनुष्य को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। विपात्र बनो और प्रतिष्ठा प्राप्त करो। सत् (बिईंग) और कृर्तृत्व (बिकमिंग) का घोर कुरुक्षेत्र नेमाडे जी के उपन्यास-चतुष्टय का दहला देने वाला अंतःसूत्र है।
जीवन के नैतिक औक सांस्कृतिक दायित्व की व्यग्रता का भाव नेमाडे जी के ‘बिढार’ में जिस अभिनिवेश शून्य परन्तु रचनात्मक स्वरूप में पाया जाता है, वह अत्यत्र दुर्लभ है।
यह मानव-सभ्यता की कैसी विडम्बना है कि सृजन-क्षमता के विनाश को स्वीकार किए बिना मनुष्य को समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। विपात्र बनो और प्रतिष्ठा प्राप्त करो। सत् (बिईंग) और कृर्तृत्व (बिकमिंग) का घोर कुरुक्षेत्र नेमाडे जी के उपन्यास-चतुष्टय का दहला देने वाला अंतःसूत्र है।
जीवन के नैतिक औक सांस्कृतिक दायित्व की व्यग्रता का भाव नेमाडे जी के ‘बिढार’ में जिस अभिनिवेश शून्य परन्तु रचनात्मक स्वरूप में पाया जाता है, वह अत्यत्र दुर्लभ है।
रंगनाथ तिवारी
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