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पुराण एवं उपनिषद् >> हनुमद पुराण

हनुमद पुराण

शिवनाथ दुबे

प्रकाशक : रणधीर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :479
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8273
आईएसबीएन :0

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हनुमद पुराण

Shree Hanumad Puran - A Hindi Book - by Pt. Shivnath Dubey

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री हनुमद पुराण

माता अंजना


स्वर्गाधिप शचीपति इन्द्रकी रूप-गुण-सम्पन्ना अप्सराओं में पुञ्जकस्थला नाम की एक प्रख्यात अप्सरा थी। वह अत्यन्त लावण्यवती तो थी ही, चंचला भी थी। एक बार की बात है कि उसने एक तपस्वी ऋषि का उपहास कर दिया। ऋषि इसे नहीं सह सके। क्रुद्ध होकर उन्होंने शाप दे दिया–‘वानरी की तरह चंचलता करने वाली तू वानरी हो जा।’

ऋषि का शाप सुनते ही पुञ्जकस्थला काँपने लगी। वह तुरन्त ऋषि के चरणों पर गिर पड़ी और हाथ जोड़कर उनसे दया की भीख माँगने लगी।

सहज कृपालु ऋषि द्रवित हो गये और बोले–‘मेरा वचन मिथ्या नहीं हो सकता। वानरी तो तुम्हें होना ही पड़ेगा, किन्तु तुम इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ होओगी। तुम जब चाहोगी, तब वानरी और जब चाहोगी, तब मानुषी के वेष में रह सकोगी।’

उस परम रूपवती अप्सरा पुञ्जकस्थला ने ऋषि के शाप से कपि योनी में वानरराज महामनस्वी कुज्जर की पुत्री के रूप में जन्म लिया। वह प्रख्यात अनिन्द्य सुन्दरी थी। उसके रूप की समानता करने वाली धरती पर अन्य कोई स्त्री नहीं थी। उस त्रैलोक्य-विख्यात सुन्दरी कुज्जर पुत्री का नाम था ‘अञ्जना’।

लावण्यवती अञ्जना का विवाह वीरवर वानरराज केसरी से हुआ। कपिराज केसरी काज्जन गिरि (सुमेरु) पर रहते थे। समस्त सुविधाओं से सम्पन्न इसी सुन्दर पर्वत पर अञ्जना अपने पतिदेव के साथ सुखपूर्वक रहने लगीं। वीरवर केसरी अपनी सुन्दरी पत्नी अञ्जना को अत्यधिक प्यार करते और अञ्जना सदा अपने प्राणाराध्य पतिदेव में ही अनुरक्त रहती थीं। इस प्रकार सुखपूर्वक बहुत दिन बीत गये; पर उनके कोई सन्तान नहीं हुई।

श्री हनुमान की
उत्पत्ति के विभिन्न हेतु


श्री हनुमान जी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में शास्त्रों में विभिन्न कथाएँ उपलब्ध होती हैं। संक्षेप में वे इस प्रकार हैं–

अन्नत करुणा एवं प्रेम की मूर्ति श्री भगवान की लीला मधुर, मनोहर एवं अद्भुत होती है। उसके स्मरण एवं श्रवण से मुनिगण मुग्ध हो जाते हैं। भक्तों की तो वह परम निधि ही होती है; किन्तु वह लीला होती है–रहस्यमयी। परम मंगलकारिणी भगवत्लीला का रहस्य देवता एवं योगीन्द्र मुनीन्द्रगण भी नहीं जान पाते; वे आश्चर्यचकित होकर मौन हो जाते हैं, फिर हम कामादि दोषों से ग्रस्त सांसारिक मनुष्य उस कैसे सोच-समझ सकते हैं। हाँ उन करुणामय लीला-विहारी की लीला का गुणगान हमारे लिए परम कल्याणकर है।

देवताओं और दैत्यों में अमृत वितरण के लिए परम प्रभु ने मोहिनी रूप धारण किया था, यह सुनकर कर्पूर गौर नीलकण्ठ बहुत चकित हुए। श्री भगवान का स्त्री-वेष कैसा?...आप्तकाम भगवान शंकर के मन में अपने प्राणाराध्य के उस विशिष्ट रूप एवं विशिष्ट लीला के दर्शन करने की कामना उदित हुई।

गग्ङाधर माता पार्वती के साथ क्षीराब्धि के तट पर पहुंचे। उन्होंने स्तवन किया। लक्ष्मीपति प्रकट हुए। देवाधिदेव महादेवी ने निवदेन किया–‘प्रभो!’ मैंने आपके मत्स्यादि सभी अवतार–स्वरूपों का दर्शन किया था, किन्तु अमृत वितरण के समय आपने परम लावण्यमयी स्त्री का वेष धारण किया, उस अवतार-स्वरूप के दर्शन से मैं वञ्चित ही रह गया। कृपया मुझे उस रूप के भी दर्शन करा दें, जिसे देखकर देवता और दानव सभी मोहित हो गये थे।’

‘देवाधिदेव महादेव! आप योगियों के उपास्य एवं मदन का दहन करने वाले हैं। आप स्त्री-अवतार देखकर क्या करेंगे? आपके लिये उसका कोई महत्व नहीं।’ लक्ष्मी-पति ने हँसते हुए उत्तर दिया।

‘पर प्रभो! मैं उक्त अवतार-स्वरूप के दर्शन से वञ्चित रहना नहीं चाहता।’ पार्वतीश्वर ने आग्रह निवेदन किया–‘कृपया मुझे उस मोहिनी स्वरूप के भीदर्शन करा ही दें।’

‘तथास्तु!’ क्षीरब्धिशायी संक्षिप्त उत्तर देकर वहीं अन्तर्धान हो गये। अब वहाँ न तो क्षीरोदधि था और न नव-नीरद वपु, शक्ङ-चक्र-गदा-पद्यधारी लक्ष्मीपति ही थे। वहाँ थे–सर्वत्र मनोहर पर्वत एवं सुरम्य वन। माता पार्वती सहित भगवान शंकर उस सुखद वन-प्रान्त के मध्य में थे।

वन में पूर्णतया बसन्त छाया था। वृक्षों में नये कोमल पत्ते निकल आये थे। सर्वत्र पुष्प खिले थे और उन सुगन्धित सुमनों पर भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे। कोकिला ‘कुहू-कुहू’ शब्द कर रही थीं। शीतल-मन्द समीर में कोमल लतिकाएँ एवं पुष्प धीरे-धीरे झूम रहे थे। सर्वत्र ऋतुराज का साम्राज्य प्रसारित था एवं मादकता व्याप्त थी।

सहसा योगियों के उपास्य त्रिनेत्र ने कुछ दूर पर लता-ओट में देखा कि एक अत्यन्त रूपवती स्त्री अपने कर-कमलों पर कन्दुक उछालती हुई रह-रहकर दीख जाती है।

कामारि अधीर होने लगे। जिस अनन्त अपरिसीम सौन्दर्य-सिन्धु के एक सीकर की तुलना सृष्टि की सम्पूर्ण राशि से सम्भव नहीं, वह सौन्दर्य-सिन्धु स्वयं जब मूर्त हो उच्छलित होता दीख जाये, तब क्या हो? उसके सम्मुख लावण्यमयी अप्सराओं का त्याग और काम-दहन की क्या गणना? भोलेनाथ को अपनी भी सुध न रही। वे निर्निमेष दृष्टि से कन्दुक द्वारा क्रीड़ा करती हुई मोहिनी को देख रहे थे।

सहसा पवन का झोंका आया और जैसे बिजली-सी कौंध गयी। अप्रतिम सौन्दर्य शालिनी मोहिनी का वस्त्र खिसका और वह नग्नप्राय हो गयी। लाज से सिकुड़ी मोहिनी लताओं में छिपने का प्रयत्न करने लगी और चिता-भस्म-धारण करने वाले योगिराज कामारि का अवशिष्ट धैर्य भी समाप्त हो गया। वे महामहिमामयी माता पार्वती के सम्मुख ही लज्जा त्यागकर उन्मत्त की तरह मोहिनी के पीछे दौड़े।

मोहिनी ने योगीश्वरशंकर को अपनी ओर आते देखा तो मुस्कराकर लताओं की ओट में अपने अग्ङों को छिपाने का प्रयत्न करती हुई दूर भागने लगी। भूतभावन मोहिनी के पीछे दौड़ रहे थे और वह भागी जा रही थी। नीलकण्ठ को अपनी स्थिति का अनुमान भी नहीं था। उन्होंने दौड़ कर मोहिनी के कर का स्पर्श कर लिया।

प्रञ्जवलित अग्नि में घुताहुति पड़ गयी, पर मोहिनी हाथ छुड़ाकर भागी। उसके स्पर्श से उत्तेजित कामारि पूर्णतया बेसुध हो चुके थे।

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