अतिरिक्त >> चैतन्य महाप्रभु चैतन्य महाप्रभुअमृतलाल नागर
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चैतन्य महाप्रभु पुस्तक का आई पैड संस्करण
नवद्वीप गौड़ का प्रमुखतम विद्या-केन्द्र था, बोल-चाल में इसे नदिया भी
कहा जाता था। वहाँ के धोबी, नाई तक न्याय और तर्क शास्त्रों के ऐसे शब्द
सहज भाव से बोल जाते थे कि बाहर के पण्डित उनका मुँह ताकते रह जायँ। वहाँ
की वे स्त्रियाँ भी, जिन्हें गलियों में आवेश आ जाने पर खुले आम हाथ
बढ़ा-बढ़ा कर बकनी-न-बकनी बकने की आदत थी, अपने आप स्वामी आचार्यों के
पांडित्य के हिसाब से ही घमंड लेकर आपस में झोंटा-नुचौवल किया करती थीं।
पंडितों के घरों के मैना-सुग्गे तक शास्त्रों के वाक्य बोला करते थे। वहाँ
संस्कृत के उत्कृष्ट काव्य ही युवा रसिकों के श्रृंगार-भीने क्षणों का
सहारा थे। नदिया हिन्दू शास्त्रों के महान आचार्यों का गढ़ थी। बंगाल के
लिए विशेष रूप से, यों भारत भर में हर जगह उनकी धाक जमी हुई थी। उनके
धार्मिक फतबों हिन्दू समाज की जातियों में उतार-चढ़ाव आते थे, व्यक्तियों
की मान-मर्यादाएँ ऊँची-नीची होती थीं।
दूसरों की मान-मर्यादाएँ उठाने-गिराने वाले इन महामहिम पंडितों की इज्जत को धूल चटाने के लिए लुटेरा बख्तियार नदिया जा पहुँचा। वह बड़ी धूर्तता और चतुराई के साथ नदिया में प्रवृष्ट हुआ था। उसने अपने लुटेरों की सेना तो आस-पास छिपा ली और स्वयं अठारह आदमियों को लेकर घोड़ों के सौदागर के भेष में निःशंक नगर में घुस गया। वह सीधे राजा के महल तक चला गया। उस पर शक करने की गुंजाइश ही न थी, लेकिन वहाँ पहुँचते ही उसने तथा उसके साथियों ने बड़े नाटकीय ढंग से अचानक मार-काट मचानी आरम्भ कर दी। पीछे-पीछे उसके छिपे हुए सैनिक भी नगर में इधर-उधर से प्रवेश करने लगे। देखते ही देखते नदिया में चारों ओर लूट-पाट और निर्मम हत्याओं का बाजार गर्म हो गया। नदिया-नरेश राय लखमनियाँ के असवाधान लड़वैये इस अचानक आक्रमण से ऐसे घबराये कि जहाँ-तहाँ दुम दबाकर भाग खड़े हुए। स्वयं लखमनियाँ राय भी पिछवाड़े की राह से महल छोड़कर भाग गया। अपनी जान बचाने के लिए उस कायर ने अपने रनिवास और माल-खजाने की भी चिन्ता न की। उस समय तक नदिया ही बंगाल की राजधानी थी। परन्तु मुसलमानों ने उसे त्याग कर गौड़ को बंगाल की नयी राजधानी बनाया।
चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़ के शासक थे। उनके यहाँ हुसैनखाँ नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैनखाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनखाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये।
हुसैनखाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन खाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनखाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैनखाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई हिन्दू सुबुद्धिराय का अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनखाँ हुसैनशाह बन गया।
इसके बाद तो फिर किसी हिन्दू राज-रजवाड़े में चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप गया। सन् १४८॰ के लगभग नदिया के दुर्भाग्य से हुसैनशाह के कानों में बार-बार यह भनक पड़ी कि नदिया के ब्राह्मण अपने जन्तर-मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय अत्याचार किये। उसके मन्दिर, पुस्तकालय और सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया।
परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया। हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड-के-झुण्ड ब्राह्मण परिवारों को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक न रखा। नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान समय रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था। तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं रहा पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे। नकटा जीये बुरे हवाल। पाठशालाएँ चलती थीं, नदिया के नाम में अब भी कुछ असर बाकी था, मगर सब कुछ फीका पड़ चुका था। लोग सहमी खिसियाई हुई जिन्दगी बसर कर रहे थे। अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर संजीवनी सिद्ध हो रही थी। नदिया में कुछ इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे जो ईश्वर और उसकी बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे। खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-गिने वैष्णव लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर और मनुष्य के लिए हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्ति थे।
यह संयोग की बात है कि श्री गौरांग का जन्म पूर्ण चन्द्रग्रहण के समय हुआ था। उस समय नदी में स्नान, करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते, आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो चुका है जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने धर्म को धर्म और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानी अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाता है।
श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-आस्था को मुक्त किया।
नाचो-गाओ, नाम कीर्तन में मस्त रहो, ईश्वर मूर्तियों में मिले तो वाह-वाह वरना वह तुम्हारे मन में, वचन और कर्मों में सदा तुम्हारे साथ। उसके नाम पर निर्भर जियो। चैतन्य ने नाच-गाकर कृष्ण नाम लेने वाले दीवानों के जुलूस निकलवा दिये। अहिंसात्मक विद्रोह करने का यह सामूहिक उपाय तब तक इतिहास में शायद पहली बार ही प्रयोग में लाया गया था। आतंक से जड़ीभूत जन-जीवन को श्री चैतन्य ने फिर से नवचैतन्य प्रदान किया। श्री चैतन्य अपने देशकाल का प्रतीक बनकर अवतरित हुए थे।
दूसरों की मान-मर्यादाएँ उठाने-गिराने वाले इन महामहिम पंडितों की इज्जत को धूल चटाने के लिए लुटेरा बख्तियार नदिया जा पहुँचा। वह बड़ी धूर्तता और चतुराई के साथ नदिया में प्रवृष्ट हुआ था। उसने अपने लुटेरों की सेना तो आस-पास छिपा ली और स्वयं अठारह आदमियों को लेकर घोड़ों के सौदागर के भेष में निःशंक नगर में घुस गया। वह सीधे राजा के महल तक चला गया। उस पर शक करने की गुंजाइश ही न थी, लेकिन वहाँ पहुँचते ही उसने तथा उसके साथियों ने बड़े नाटकीय ढंग से अचानक मार-काट मचानी आरम्भ कर दी। पीछे-पीछे उसके छिपे हुए सैनिक भी नगर में इधर-उधर से प्रवेश करने लगे। देखते ही देखते नदिया में चारों ओर लूट-पाट और निर्मम हत्याओं का बाजार गर्म हो गया। नदिया-नरेश राय लखमनियाँ के असवाधान लड़वैये इस अचानक आक्रमण से ऐसे घबराये कि जहाँ-तहाँ दुम दबाकर भाग खड़े हुए। स्वयं लखमनियाँ राय भी पिछवाड़े की राह से महल छोड़कर भाग गया। अपनी जान बचाने के लिए उस कायर ने अपने रनिवास और माल-खजाने की भी चिन्ता न की। उस समय तक नदिया ही बंगाल की राजधानी थी। परन्तु मुसलमानों ने उसे त्याग कर गौड़ को बंगाल की नयी राजधानी बनाया।
चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़ के शासक थे। उनके यहाँ हुसैनखाँ नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैनखाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनखाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये।
हुसैनखाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन खाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनखाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैनखाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई हिन्दू सुबुद्धिराय का अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनखाँ हुसैनशाह बन गया।
इसके बाद तो फिर किसी हिन्दू राज-रजवाड़े में चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप गया। सन् १४८॰ के लगभग नदिया के दुर्भाग्य से हुसैनशाह के कानों में बार-बार यह भनक पड़ी कि नदिया के ब्राह्मण अपने जन्तर-मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय अत्याचार किये। उसके मन्दिर, पुस्तकालय और सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया।
परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया। हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड-के-झुण्ड ब्राह्मण परिवारों को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक न रखा। नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान समय रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था। तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं रहा पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे। नकटा जीये बुरे हवाल। पाठशालाएँ चलती थीं, नदिया के नाम में अब भी कुछ असर बाकी था, मगर सब कुछ फीका पड़ चुका था। लोग सहमी खिसियाई हुई जिन्दगी बसर कर रहे थे। अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर संजीवनी सिद्ध हो रही थी। नदिया में कुछ इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे जो ईश्वर और उसकी बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे। खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-गिने वैष्णव लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर और मनुष्य के लिए हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्ति थे।
यह संयोग की बात है कि श्री गौरांग का जन्म पूर्ण चन्द्रग्रहण के समय हुआ था। उस समय नदी में स्नान, करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते, आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो चुका है जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने धर्म को धर्म और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानी अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाता है।
श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-आस्था को मुक्त किया।
नाचो-गाओ, नाम कीर्तन में मस्त रहो, ईश्वर मूर्तियों में मिले तो वाह-वाह वरना वह तुम्हारे मन में, वचन और कर्मों में सदा तुम्हारे साथ। उसके नाम पर निर्भर जियो। चैतन्य ने नाच-गाकर कृष्ण नाम लेने वाले दीवानों के जुलूस निकलवा दिये। अहिंसात्मक विद्रोह करने का यह सामूहिक उपाय तब तक इतिहास में शायद पहली बार ही प्रयोग में लाया गया था। आतंक से जड़ीभूत जन-जीवन को श्री चैतन्य ने फिर से नवचैतन्य प्रदान किया। श्री चैतन्य अपने देशकाल का प्रतीक बनकर अवतरित हुए थे।
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