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हिमउजास

लक्ष्मीधर मालवीय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8472
आईएसबीएन :0

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हिमउजास पुस्तक का आई पैड संस्करण...

Himujaas - A Hindi Book - by Laxmidhar Malviya

आई पैड संस्करण

यह जापानी जीवन पर आधृत सन् 68-78 के बीच जापान में लिखी गयी मेरी कहानियों का पहला संकलन है। कहानियाँ मैने भारत में रहने के दौरान भी लिखी थीं औऱ वे पत्रिकाओं में प्रकाशित ‘फुनामुशि’ भी हुई थीं पर अब जब मैं भारत जाता हूँ तो मुझे दिल्ली में कनाडियन, श्रीनगर में मेक्सिकन, बंबई में, इतावली वगैरह समझा जाता है और इलाहाबाद के उस मोहल्ले में, जहाँ मेरा जन्म हुआ था, घूमने पर मोहल्ले के कुत्ते काटने को दौड़ते हैं लेकिन यह वहाँ आने वालों का स्वागत करने की परंपरागत ‘वापसी’ प्रणाली है इसलिये यह बताना आवश्यक है कि मैं वहीं पैदा हुआ था, अपने पिता-पितामह-प्रपितामह की तरह लेकिन उनमें और ‘खत...’ मुझमें अन्तर इतना है कि वे नाराज होने पर भी वहीं रहे और मैं वहाँ से निकल आया लेकिन वह नाराजगी इस या किसी भूमिका का विषय नहीं हो सकती।

‘जापान ! आत्मा की परत’ जापान आने पर मैंने वायदा किया था कि मैं जापान को लेकर लिखूँगा तो भी उन उपन्यासों-कहानियों को कम-से-कम दस वर्ष तक प्रकाशन के लिये नहीं दूँगा क्योंकि मैने पाया कि यहाँ आने और उड़नछू हो जाने वाले लेखक उस किस्सागो विषेशज्ञ-सा लिखते हैं और वैसा मैं एक मामूली पाठक की हैसियत से ‘बिल्ली की पहली मौत’ पढ़ना भी न चाहूँगा जैसा वहाँ एक परिचित सुनाया करते थे कि कैसे भारतीय रेल से यात्रा कर रही एक जापानी महिला ने ईख के छिलके छील कर अपने बच्चों को गँडेरियाँ दीं और फिर कैसे उसने ईख के छिलकों से झट-से एक छोटी-सी डलिया बनायी और बच्चों की उगली हुई सीठियाँ उसमें रख कर ट्रेन से उतर गयी, जादूगरनी की तरह ! ‘कैलेइडॉस्कोप’ आत्मभर्त्सना हमारा राष्ट्रीय खेल है। इस संयोग को मैं अपना निजी सौभाग्य मानता हूँ कि ‘सुबह का धुँधला चाँद’ यहाँ आने के पहले मेरे मन पर जापान के एक भी शख्स या एक भी लफ्ज का अक्स नहीं था। मेरे पास एक छोटे-से बक्स में थोड़ा-सा फोरी इस्तेमाल का सामान ‘नर-मादा’ और मन में अपनी भाषा थी। जापान, ओसाके मन्दिर और गेइशा नहीं है, वैसे ही जैसे भारत साँप, अकाल, भिखमंगे और बुद्ध नहीं है ‘हिमउजास’ बाकी सारी दुनिया की तरह इन दोनों जगहों में भी शारीरिक अवयवों से भरे-पूरे जागते-सोते, हँसते-रोते मनुष्यों की...’’

1-46 मानदाइ निशि
सुमियोशि कु, ओसाका 558जापान

-लक्ष्मीधर मालवीय

फ़ुनामुशि1


देखो, मैंने पहले ही कहा था न, कि हम कहीं भी क्यों न चले जाएँ, उससे बच सकना एकदम असंभव है।
मैं उस जगह का नाम नहीं जानता था और मैं अंत तक भी नहीं जान पाया और न अब कभी जान पाऊँगा क्योंकि न तो मैने उससे पूछा और न उसने मुझे अपने आप बताया; फिर, रात को ही मैं वहाँ से वापस चला आया इसलिये वह जगह मेरे लिये हमेशा को खो गयी। हालाँकि वही मुझे अपने साथ वहाँ ले गयी थी। उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा था। उस जगह का ही नहीं, अपने घर का नाम-धाम तक उसने मुझे कभी नहीं बताया था।
वह जगह हमारे शहर से काफ़ी दूर पर थी। हम एक स्टेशन पर रेलगाड़ी से उतरे और स्टेशन के बाहर खड़ी एक बस पर, जो रवाना होने के लिये एकदम तैयार थी, झटपट चढ़ गये और उस बस पर कोई डेड़ घंटे-या हो सकता है, दो घंटे–जाने के बाद एक लंबी और चौड़ी घाटी में एक पुलिया के बगल में उतर कर बायीं ओर के एक कच्चे रास्ते पर तीन-चार किलोमीटर पैदल चलते गये।
-अब तुम यहाँ कहीं पर भी अपना टेन्ट खड़ा कर सकते हो।
उसने कहा।
दोनों ओर धान के खेत थे और वे सचमुच खाली भी थे लेकिन खेतों में दलदल था इसलिये उनमें टेन्ट नहीं लगाया जा सकता था। हम दाहिनी ओर के दो बीच की मेड़ पर उतर आये। उसके बाद एक चौड़ा रेतीला मैदान था और मैदान के दूसरी ओर एक टीले-जैसी जगह थी, जिस पर कई पेड़ों का झुंड खड़ा था। मैने चेहरा ऊपर करके उन पेड़ों को गौर से देखा पर मैं कह नहीं सकता कि वे काहे के पेड़ थे। ऐसे मौकों पर मुझे बड़ी आत्मग्लानि होती है कि मुझे सर्जरी के जरिये मनुष्य के शरीर के अंदरूनी कोने-आँतरों का विस्तृत ज्ञान पाने के साथ-साथ वनस्पति शास्त्र का भी अध्ययन करना चाहिये था ताकि मैं महज पेड़ कहने की बजाय पेड़ का सही-सही वैज्ञानिक नाम भी बता सकता।

वह प्रेम को ठेलती हुई मेरे पीछे-पीछे चली आ रही थी। प्रेम में उसका बच्चा था, जो हचकोले खा कर सो गया था।
पेडो़ वाले टीले के दूसरी ओऱ एक तेज बहावदार नदी का मोड़ था, जो सिर्फ आठ-दस गज आगे जाकर समुद्र में मिल जाती थी। पर आठ-दस गज का वह इलाका वास्तव में खुल्लमखुल्ला धोखाध़ड़ी था। यह बात मुझे रात को पता चली जब मैंने देखा कि उतनी धरती न तो पूरी-पूरी समुद्र की थी और न पूरी-पूरी नदी की। रात के अँधेरे में समुद्र, अंडे चुराने वाले साँप की तरह चुपके से आगे सरक आया था और उतनी जगह को निगल गया था। शायद दिन के समय उसी जगह पर नदी इठला कर बहती दिखाई दिया करती होगी। बहरहाल, उस शाम को जब हम उस जगह पर पहुँचे, टीले और नदी के तेज बहाव के बीच की मुख्तसर-सी जगह में सूखी रेत का सिर्फ़ इतना-सा किनारा बच रहा था कि उस पर एक छोटा-सा टेन्ट खड़ा किया जा सके।

उस जगह को देखते ही-मैंने उससे कुछ नहीं कहा-अपने मन में फुसफुसा कर कहा कि यही वह जगह है। कुछ जगहें ही ऐसी होती हैं कि उन्हें देख कर मन में यह बात आप-से-आप आ जाती है। असल में बात यह है कि हम किसी भी नयी जगह पर क्यों न जाएँ, हम असुरक्षा की भावना से बचने के लिये उस जगह को पहले देखी-जानी किसी दूसरी जगह के साथ जोड़ जरूर लेते हैं।
तब तक पूरी तरह से अँधेरा नहीं हो गया था फिर भी मैंने मोमवत्ती और लालटेन जला दी। फिर मैंने स्टोव जलाया। मैंने उसे खाना नहीं बनाने दिया क्यों कि उसका बच्चा टेन्ट के भीतर घुप अँधेरे में चीख-चीख कर रो रहा था और वह चुपचाप उसे थपकियाँ देकर सुलाने की कोशिश में लगी थी। वह एकदम चुप थी लेकिन मैं जानता था कि वह अपने मन में बुरी तरह गुस्से से उफन रही होगी।

बच्चा पूरी तरह से रोते रहने के कारण थक गया था इसलिये वह कुछ ही देर बाद रिरियाने लगा। मुझे आशा बँधी। थोड़ी देर बाद जब बच्चे की रिरियाहट भी शान्त हो गयी तो नदी के बहाव की हल्की आवाज और ऊपर पेड़ की छोटी-बड़ी पत्तियों में हवा की सरसराहट और नदी-पार की बड़ी चट्टान से चिपके सन्नाटे की आवाज साफ़-साफ़ उभर आयी।
वह टेन्ट का पर्दा उठा कर अचानक बाहर निकली तो खाना तैयार देख कर माफ़ी माँगने लगी। अलमुनियम के कई खुले बर्तनों से भाफ़, मोमबत्ती की रोशनी में पीले धूँए-जैसी उठ रही थी।
उसने सीधी खड़ी होकर पहली बार चारों ओर निगाह फेरते हुए देखा, हालाँकि वहाँ नीले धुँधलके और बनते-बिगड़ते सन्नाटे के सिवा कुछ न था।

-क्या वह बच्चा सो गया ?-मैने अपने मन की चिढ़ को स्वर से मुलायम करते हुए पूछा।
-हाँ।
-तो आओ, खाना खाया जाए।
जमीन पर रखी मोमबत्ती की रोशनी में हम प्लेट के खाने को देख नहीं सकते थे।
-यह जगह तुम्हें कैसी लगी-उसने खाने के बीच पूछा।

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