लोगों की राय

पौराणिक कथाएँ >> श्रीराम

श्रीराम

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :35
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 850
आईएसबीएन :81-293-0469-4

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

341 पाठक हैं

श्रीराम के जीवन की मार्मिक प्रस्तुति...

Shri Ram a Hindi Book by Gitapress - श्रीराम - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्वामित्र के साथ श्रीराम-लक्ष्मण

गंगाजी के दक्षिण में एक परम रमणीय वन था। उस वन में सिद्धाश्रम नामक पवित्र आश्रम था आश्रम में परम तपस्वी महामुनि विश्वामित्र अपने शिष्यों के साथ निवास करते थे। उसी आश्रम के सन्निकट ताड़का नाम की एक राक्षसी निवास करती थी। उसके दो पुत्र थे जिनका नाम मारीच और सुबाहु था। वे परम बलवान तथा मायावी थे। वहाँ ऋषि मुनि जब यज्ञ करते थे, तब वे दोनों अपने साथी दुष्ट राक्षसों के साथ पहुँचकर उसे नष्ट भष्ट कर देते थे और ऋषि मुनियों को नाना प्रकार से भयभीत किया करते थे।

एक दिन महर्षि विश्वामित्र विचार किया कि ‘धरती को राक्षसों के अत्याचार से मुक्त करने के लिये श्रीहरि ने महाराज दशरथ के यहाँ श्रीरामरूप में आवतार ले लिया है। मुझे शीघ्र ही वहाँ जाकर तथा अयोध्या के महाराज दशरथ से उन्हें माँगकर यहाँ निर्विघ्र सम्पन्न करायेगें। इस विचार को कार्य रूप देने के उद्देश्य से महार्षि विश्वामित्र अयोध्या पहुँचे।
महाराज दशरथ ने भक्ति और आदर के साथ महर्षि विश्वामित्र का स्वागत किया उन्हें उत्तम आसन पर बैठाकर उनके पाव पखारा और कहा, ‘‘भगवन् आपके आगमन से हम धन्य हुए। हमारे लिये जो भी आदेश हो, आप निःसंकोच बतायें आपका आगमन किस  उद्देश्य से हुआ है ? आप अपनी सेवा का अवसर देकर हमें कृतार्थ करे।’

महाराज दशरथ के विनय से विश्वामित्र परम प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा,-‘हम एक यज्ञ करना चाहते है परन्तु मारीच और सुबाहु मेरे यज्ञ कुण्ड में माँस और रुधिर की वर्षा करके उसे नष्ट-भ्रष्ट कर देते है जिसके कारण मेरा यज्ञ पूरा नहीं हो पा रहा है मारीच और सुबाहु को मैं शाप देकर भी भष्म कर सकता हूँ, पर ऐसा करने से मेरी तपस्या नष्ट हो जाएगी। तुम उदार मन से श्रीराम और लक्ष्मण को मेरे साथ भेज दो। वे उन राक्षसों को मारकर मेरे यज्ञ को पूरा करायेगे। इस प्रकार मेरा यज्ञ भी पूर्ण हो जायगा और श्रीराम-लक्ष्मण का कल्याण भी होगा।’

महाराज दशरथ ने हाथ जोड़कर कहा- ‘महर्षि ! श्रीराम-लक्ष्मण अभी बालक हैं। ये महल को छोड़कर कहीं बाहर पैर नहीं रखे हैं। इनको युद्ध का कोई  अनुभव भी नहीं है भला ये उन राक्षसों से कैसे युद्ध करेंगे ? यदि आप आदेश दे तो मैं अयोध्या कि सेना लेकर आपके साथ स्वयं चल सकता हूँ चौथेपन में मैंने चार पुत्र प्राप्त किये है। फिर उनमे राम तो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। क्षमा कीजिए मैं श्रीराम लक्ष्मण को आपके साथ नहीं भेज सकता।’ विश्वामित्र अत्यन्त क्रुध हो गये। उन्होंने कहा-‘राजन् ! तुम वचन देकर फिर रहे हो। तुम्हारे जैसे ज्ञानी को बच्चों के प्रति इतनी ममता नहीं रखनी चाहिये, यदि मैं आज भगवान विष्णु से कह देता तो वे भी वैकुण्ड छोड़कर मेरी सहायता को आ जाते। शिव का आसन भी मेरे आदेश को सुनकर हिल जाता। मुझे पश्चात्ताप है कि मैंने हाथ पसारकर तुमसे कुछ माँगा। तुमने तो अपने कुल की मर्यादा ही खण्डित कर दी। ठीक, है मैं वापस जाता हूँ।

बात बिगड़ती देखकर कुल -पुरोहित वसिष्ठजीने किसी तरह महर्षि विश्नामित्र को समझाकर शान्त किया। उन्होंने महाराज दशरथ से कहा- ‘राजन ! विश्नामित्र का आदेश शिरोधार्य करने में ही तुम्हारा कल्याण है। इनके साथ निर्भय होकर तुम श्रीराम-लक्ष्मण को भेज दो। विश्वामित्र जी साक्षात् धर्म हैं। इस संसार में विश्नामित्र-जैसा शस्त्रोंका ज्ञाता और कोई नहीं है। राक्षसों का संहार करना तो इनके बायें हाथ का खेल है। ये देखते-ही-देखते संसार के सम्पूर्ण राक्षसों का संहार कर सकते है। फिर भी ये श्रीराम-लक्ष्मण को राक्षसों के वध का श्रेय देना चाहते हैं।’ गुरु वसिष्ठ की बात मानकर महाराज दशरथ ने श्रीराम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दिया। पुरुषों में सिंह श्रीराम और लक्ष्मण सानन्द विश्वामित्र के साथ मुनियों का भय हरण करने के लिये चल पड़े।


ताड़का- संहार



श्रीराम और लक्ष्मण का मन बहलाने के लिये विश्वामित्र उन्हें विविध इतिहास की कथाएँ सुनाते जा रहे थे। रास्तें में पड़ने वाले वन, उपवन नदी तथा पहाड़ आदि को देखकर श्रीराम-लक्ष्मण को अनोखा आनन्द प्राप्त हो रहा था। जब श्रीविश्वामित्र छः कोस की यात्रा पूरी कर सरयू के दक्षिण तट पर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने श्रीराम को बला और अति बला नामक विद्या का उपदेश किया इस विद्या के प्रयोग से मनुष्य को भूख-प्यास नहीं सताती तथा कोई राक्षस सोई हुई अवस्था में उस पर आक्रमण नहीं कर सकता। वह रात सरयू के तट पर बिताकर तीनों पथिक आगे बढ़े। जब श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ गंगाजी के दक्षिणी तट पर पहुँचे, तब रास्ता अत्यन्त दुर्गम हो गया। सिंह, व्याघ्र, सूकर आदि उस वन की भयंकरता को और भी बढ़ा रहे थे श्रीराम ने विश्वामित्र जी से पूछा ‘प्रभो ! इस भयंकर जंगल का क्या नाम  है तथा इसका इतिहास क्या है ?’

विश्वामित्र जी ने कहा राम इस भूखण्ड में बहुत दिनों पहले मलद और कुरुष नामक दो अत्यन्त ही समृद्ध जनपद थे। कालान्तर में ताड़का नाम की एक यक्षिणी अपने पति सुन्द के साथ आकर रहने लगी। उसके पास दस हजार हाथियों का बल था। दोनों पति-पत्नी यहां स्वछंद रहने लगे तथा यहां के निवासी और मुनि उनके अत्याचार से पीड़ित होकर इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले गये। अगस्त्य ऋषि के शापसे सुन्द भस्म हो गया और ताड़का राक्षसी हो गयी। मारीच और सुबाहु इसी ताड़का के पुत्र हैं। इन राक्षसों के अत्याचार से यह स्थान निर्जन पड़ा है। कोई भी इस रास्ते से आने की हिम्मत नहीं करता। यदि कोई आ भी जाता है तो ताड़का उसे मारकर खा जाती है। अब स्थान का नाम दण्डकारण्य है तुम इस दुष्टा राक्षसी को मारकर इस स्थान को पवित्र करो इसीलिये मैं तुम्हें इस घोर वन के रास्ते से लाया हूँ।’  
श्रीराम ने कहा- ‘मुनिवर ! भले ही ताड़का क्रूर और दुष्टा हो, परन्तु वह स्त्री है। एक स्त्री को मारना रघुकुल की मर्यादा के विरुद्ध है। मैं इसकों मारकर स्त्री-वधका पाप भला कैसे कर सकता हूं ?’

विश्वामित्रजी ने कहा-‘श्रीराम ! अत्याचारी व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष यदि वह अपना सुधार नहीं करता और जनता को पीड़ित करता है तो उसे मार डालना परम धर्म है दुष्कर्मियों की उपेक्षा करना महान पाप है इसलिये तुम बिना शंका किये इस दुष्ट का संहार  करो।’ विश्वामित्र जी के आदेश का पालन करने के लिये श्रीराम ने अपना धनुष उठाया और जोर से टंकार किया। धनुष की टंकार सुनते ही ताड़का अपने निवास से निकली। भय उसे छू तक नही सका था। वह बिजली –सी कड़कती हुई श्रीराम और विश्वामित्र की ओर दौड़ी। उसके चारों ओर धूल उड़ रही थी। अत्यन्त क्रोधित होकर वह श्रीराम-लक्ष्मण और विश्वामित्र पर पत्थरो की वर्षा करने लगी। श्रीराम और लक्ष्मण भी अपना धनुष-बाण लेकर उसके सामने आ डटे। भंयकर युद्ध प्रारम्भ हो गया। अब ताड़का ने माया- युद्ध प्रारम्भ किया। छिपकर उसने नाना प्रकार के शस्त्रों के प्रहार की झड़ी लगा दी। श्रीराम ने एक बाण चलाकर उसके अस्त्र-शस्त्रों को बेकार कर दिया युद्ध में विलम्ब होते देखकर विश्वामित्र ने कहा-‘श्रीराम अब इसे मारने में देर मत करो। रात्रि में राक्षसों की शक्ति अधिक बढ़ जाती है। फिर इसे मारना कठिन हो जायगा।’

श्रीराम ने ताड़का को मार डालने के उद्देश्य से धनुष पर एक कराल बाणका संधान किया और ताड़का की छाती को लक्ष्य करके चला दिया। उस बाण के लगते ही ताड़का की छाती फट गयी और व कटे वृक्ष की तरह पृथ्वी पर गिरकर मर गयी। देवगणों ने आकाश से श्रीराम के ऊपर पुष्पों की वर्षा की। ताड़का-वध से विश्वामित्र जी परम प्रसन्न हुए। चारों ओर श्रीराम की जय-जयकार होने लगी।   


विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा


ताड़का-संहार के बाद श्रीविश्वामित्र को यह पूर्ण विश्वास हो गया था कि श्रीराम साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर हैं। उन्होंने कहा- श्रीराम  ! मैं  तुमपर परम प्रसन्न हूँ। अब मैं अपनी अपूर्व तपस्याद्वारा प्राप्त समस्त दिव्यास्त्रकी विद्या तुम्हें प्रदान करता हूँ।’ विश्वामित्र से दिव्यास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर श्रीराम-लक्ष्मण उनके  पवित्र आश्रमपर पहुँचे।
विश्वामित्र जी ने कहा- ‘श्रीराम ! सिद्धाश्रम के नामसे प्रसिद्ध यही मेरा पवित्र आश्रम है। प्राचीन काल में श्रीविष्णुने यहां तपस्या करके सिद्धि पायी थी, तभी से इसका नाम सिद्धाश्रम पड़ा। यहीं पर असुर–सम्राट दानवीर बलिने अपना इतिहास-प्रसिद्ध यज्ञ किया था। भगवान वामनने यहीं बलिसे तीनों लोकों का दान  लेकर उसे अपनी अनपायिनी भक्ति प्रदान की थी। इसलिये मैंने इस स्थान को परम पवित्र समझकर अपने आश्रमके लिये चुना है।’

इस प्रकार चर्चा में करते हुए महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम-लक्ष्मण के साथ अपने आश्रम में प्रवेश किया। सभी आश्रमवासी विश्वामित्रके साथ श्रीराम लक्ष्मण को आया देखकर परम प्रसन्न हुए। उन लोगों ने नवागन्तुक श्रीराम-लक्ष्मण का अर्घ्य-पाद्य से भरपूर स्वागत किया। कुछ समय विश्राम के बाद श्रीराम ने विश्वामित्र से कहा- ‘महर्षि ! आप आज ही यज्ञ प्रारम्भ कर दें। आप निश्चिन्त रहें, अब कोई भी राक्षस आपके यज्ञमें विघ्न नहीं डाल सकता हम दोनों पूरी सावधानी से तत्पर होकर आपके यज्ञ की रक्षा करेंगे।’

आश्रम के सहयोगी ऋषि-मुनियों के साथ महर्षि विश्वामित्र ने यज्ञ प्रारम्भ किया। पवित्र वेद-मन्त्रों के उच्चारण से धरती और आकाश गूँज उठे। चारों ओर  यज्ञ का पवित्र धूम्र फैल गया। दोनों राजकुमार छः दिनों तक तपोवन की रक्षा करते रहे। इस बीच इन्होंने एक क्षण के लिये भी विश्राम तक नहीं किया।
छठा दिन ही यज्ञ की पूर्णाहुतिका दिन था। श्रीराम-लक्ष्मण पूर्ण सावधान हो गये। उसी समय आकाश में बड़े जोर का भयानक शब्द हुआ। वर्षा के मेघों की तरह मारीच और सुबाहु नामक राक्षस राक्षसी सेना के साथ अचानक आकाश में प्रकट हुए। ताड़का के वध से वे दोनों विशेष क्रोधित थे। श्रीराम-लक्ष्मण के साथ आज वे आश्रम के समस्त मुनि-सामजको नष्ट कर देना चाहते थे। अपनी माया से उन्होंने आते ही आश्रममें रक्त बरसाना शुरू कर दिया।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai