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सुजान

मिथिलेश कुमारी मिश्रा

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8642
आईएसबीएन :0

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सुजान पुस्तक का आई पैड संस्करण

Sujaan - A Hindi Ebook By Mithilesh Kumari Mishra

आई पैड संस्करण


‘घन आनन्द प्यारे सुजान सुनौ, इत इक ते दूसरो आँक नहीं’ आनन्द के सुरीले कण्ठ से निकली हुई यह पंक्ति सुजान के अन्तःकरण में रस भर देती थी। उस पर प्रीति का उन्माद छा जाता, यद्यपि वह भली-भाँति समझती थी कि प्रीति से उसका कोई सम्बन्ध नहीं, वह वारांगना है! राजनर्तकी है तो क्या हुआ? आखिर वेश्या ही है न! अन्य पेशेवर रण्डियों के मुहल्ले में नहीं रहती, तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि उसके भवन से निकलते पुरुषों को देखकर सभी अनुमान लगा लेते थे कि सुजान वेश्या है। कभी-कभी उसका मन भारी हो जाता, बड़ी निराशा हो उठती, मारे वितृष्णा के वह पुरुषों से विद्रोह की इच्छा कर बैठती। वह वातायन के सहारे खड़ी हो जाती और व्योम में रतनारे नयन फैलाकर प्रश्न करती–बोलो! अम्बर! तुम्हीं बताओ! मुझे वेश्या किसने बनाया? उत्तर मिलता पुरुषों ने। सुजान को पुरुष जाति से घृणा होने लगी थी परन्तु इनसे वह पिण्ड भी तो नहीं छुड़ा पाती थी। जैसे पुरुष ही संसार पर राज्य करते हों जैसे उन्हें ही सर्वोपरि बनने का एकाधिकार मिला हो, यह घोर वैषम्य है, विडम्बना है। नारी के लिए पुरुष अभिशाप है, पुरुष पाप है। एक क्षण दुःखी सुजान चीख उठती दूसरे ही क्षण लोल कपोलों पर अश्रुकण झलकने लगे। ‘पुरुष नारी का पूरक है’ पीछे से स्वर माधुरी मुखर हुई। मुड़कर सुजान ने देखा घन आनन्द!
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