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पौराणिक कथाएँ >> रामलला

रामलला

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :35
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 865
आईएसबीएन :81-293-0468-6

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प्रस्तुत है राम के जीवन का कथा...

Ramlala a Hindi book by Gitapress - रामलला - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भगवान श्री राम

त्रेतायुग में रावण नामक परम प्रतापी राक्षस हुआ। उसने अपनी अपूर्व तथा कठिन तपस्या से ब्रह्माजीको प्रसन्नकर देवता, दानव, गन्धर्व किसी के द्वारा भी न मरने का वरदान प्राप्त कर लिया। उसके बाद उसने अपने भाई कुम्भकर्ण के साथ राक्षसों की विशाल सेना लेकर तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। उसके आदेशसे उसके सैनिक धर्म को निर्मूल करनेका हर सम्भव प्रयास करने लगे। वे यदि कहीं किसी को धर्माचरण करते हुए देख लेते तो नगर और ग्राम को जला देते। चारों ओर राक्षसों का आतंक छा गया। उस समय पृथ्वी, देवताओं एवं ब्रह्माकी प्रार्थना से द्रवित होकर साक्षात् श्रीहरिने अपने अंशों के साथ अयोध्या में महाराज दशरथ के यहां श्रीरामस्वरूप में अवतार लिया। भगवान श्रीराम के अवतारका उद्देश्य असुरों के अत्याचार का अन्त देवताओंकी सुरक्षा, भक्तों को सुख देना तथा धर्मकी स्थापना करना था।

भगवान श्रीरामका शौर्य अद्भुत था। महर्षि विश्वामित्र के साथ जाकर श्री रामने मारीच, सुबाहु आदि राक्षसों का देखते-ही-देखते संहार कर डाला और उनके यज्ञकी रक्षा की। मार्ग में शिलाके रूप में पड़ी गौतम की पत्नी अहल्या का उद्घार किया। जनकपुर में सीता का स्वयंवर हो रहा था। वहां भगवान् श्रीराम ने शिव-धनुष को बात-की-बात में उठाकर उसकी डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोबीच से उसके दो टुकड़े कर दिये। भगवान की अभिन्न शक्ति श्री लक्ष्मी जी ही सीता के नाम से जनकपुर में अवतरित हुई थीं वे गुण, शील, अवस्था तथा सौन्दर्य में सर्वथा भगवान् श्री रामके ही अनुरूप थीं। भगवानने ने शिव-धनुष तोड़कर उन्हें पत्नी रूप में प्राप्त किया धनुष टूटने के कठोर शब्द को सुनकर परशुराम जी का आगमन हुआ जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया था भगवान श्रीराम ने उनके वैष्णव धनुष को चढ़ाकर उनके गर्वको नष्ट कर दिया। था। वे भगवान को अपना धनुष सौंपकर तथा उन्हें बार-बार प्रणाम कर तपस्या के लिये चले गये।

महाराज दशरथ ने भगवान् श्रीरामको युवराज बनाना चाहा, जिसमें मंथरा और कैकेयी की कुटिलता के कारण विघ्र पड़ा। श्री रामने पिता के वचनों का पालन करने के लिये राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी हितैषी- सबको छोड़कर अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ  वनकी यात्रा की। वनमें श्रीरामने राक्षस राज रावणकी बहन शूर्पणखाकों लक्ष्मण द्वारा विरूप करवा दिया, क्योंकि उसकी बुद्धि काम-वासनाके कारण कलुषित थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण त्रिसिरा आदि के साथ चौदह हजार राक्षसों का भगवान ने संहार कर डाला। रावण ने छलपूर्वक मारीचको स्वर्ण मृग बनाकर विदेहनन्दिनी सीताका हरण कर लिया। तदन्तर  भगवान  जटायुका  दाह–संस्कार, कबन्धका संहार तथा सुग्रीव से मित्रता करके बालि का वध किया और बन्दरों के द्वारा अपनी प्राणप्रिया सीताजी का पता लगवाया।

समुद्रपर पुल बाँधकर भगवान श्रीराम ने रावण के द्वारा रक्षित लंका में प्रवेश किया और बन्धु-बान्धवों के साथ रावण का संहार किया। विभीषण को राक्षसों का राजा बनाकर तथा चौदह वर्ष का वनवास पूरा कर श्रीराम, सुग्रीव, हनुमान, लक्ष्मण तथा सीता के साथ  पुष्पक-विमान से अयोध्या लौटे। उस समय मार्ग में ब्रह्मा आदि लोकपाल उनपर प्रेमसे पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।

नन्दिग्राम में तपस्या कर रहे श्रीभरत जी को गले लगाकर भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा तथा भाइयों का अभिन्नदन स्वीकार करते हुए अयोध्या में प्रवेश किया। उसके बाद गुरुदेव वसिष्ठने उनका विधिवत् राज्याभिषेक किया। समस्त अयोध्या में आनन्द की लहर दौड़ गयी। फिर भगवान् श्रीराम अपनी प्रजाका पिताके समान पालन करने लगे। त्रेता में सत्ययुग का अवतरण हुआ रामराज्य युग-युगान्तर तक आदर्श बन गया।


मनु-शतरूपा को वरदान


सृष्टि के आदि में पितामह ब्रह्मा ने सर्वप्रथम स्वयंभू मनु और शतरूपा की सृष्टि की। आगे चलकर इन्ही भाग्यवान दम्पति के द्वारा सृष्टि का विस्तार हुआ। उनके सदाचार, शील तथा पवित्र धर्माचरण के विषय में आज भी श्रुतियों में वर्णन मिलता है। हम सब मानव उन्हीं मनु एवं शतरूपा की संतान हैं। इनके सबसे बड़े पुत्र का नाम उत्तानपाद था, जिनके यहाँ ध्रुव जैसे परम भागवत पुत्र का जन्म हुआ। महाराज मनु के दूसरे पुत्र का नाम प्रियव्रत तथा पुत्री का नाम देवहूति था।
देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि के साथ हुआ। इनके यहाँ भगवान् ने कपिलरूप में अवतार लिया तथा अपनी माता को सांख्यशास्त्र का उपदेश दिया।

महाराज मनु बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किसी को कोई कष्ट नहीं था। सब लोग धर्मारण में संलग्न थे। इस तरह प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनु का चौथापन आ गया, तब उन्होंने संपूर्ण राज्यबार अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौपकर एकान्तमें भगवान का भजन करने के लिए अपनी पत्नी शतरूपा को साथ नैमिषारण्य जाने का निर्णय लिया।

महाराज मनुके नैमिषारण्य पहुँचने पर वहाँ के मुनियों ने बड़े ही प्रेम से उनका स्वागत किया तथा वहाँ के तीर्थों में उन्हें सादर स्नान करवाया। उसके बाद मनु और शतरूपा दोनों पति-पत्नी वट-वृक्ष के नीचे  बैठकर भगवान के दर्शन के लिए कठोर तप करने लगे। कुछ दिनों तक उन्होंने केवल जल पीकर तप किया। उनके मन में यह दृढ़ इच्छा थी कि ‘नेति-नेति’ के रूप में वेद जिन परमात्मा के गुणों का गान करते हैं तथा जिनके एक अंश से अनेक ब्रह्मा, विष्णु और महेश पैदा होते हैं; हम उन परम प्रभु का दर्शन करें।

इस प्रकार महारज मनु और शतरूपा को जल पीकर तपस्या करते हुए छः सहस्र वर्ष बीत गए। फिर उन्होंने सात सहस्र वर्षों तक केवल वायु पीकर  तपस्या की। दस सहस्र वर्ष तक तो वे दोनों केवल एक पैर पर खड़े होकर तपस्या करते रहे। ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने उनकी कठिन तपस्या को देखकर कई बार उन्हें वर देने का प्रयास किया, लेकिन महाराज मनु ने उस पर ध्यान नहीं दिया। उनका शरीर कठिन तपस्या के कारणकेवल हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया।

जब भगवान ने समझ लिया कि राजा-रानी नम, कर्म और वचन से मेरे अन्यन्य भक्त हैं, तब आकाश से ‘वर माँगो’ ऐसी आकाशवाणी हुई। वह आकाशवाणी मानो मनु-शतरूपा के शरीर में प्राणों का संचार करने वाली थी। देखते-ही-देखते उन दोनों के शरीर हृष्ट-पुष्ट हो गए। मनु ने हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम किया और कहा—‘हे प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं आपके मुनिमनहारी स्वरूप को देखना चाहता हूँ। कृपा करके मुझे यही वर दें।’ मनु के ऐसा कहते ही भगवान ने मनु से कहा –‘राजन ! तुम्हारे मन में जो भी इच्छा हो मुझसे निःसंकोच माँग लो। मैं तुम दोनों पर परम प्रसन्न हूँ। तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ भी अदेय नहीं है।’ मनु ने कहा—‘प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं आपसे आपके समान ही पुत्र चाहता हूँ। हे कृपानिधि ! मुझे यही वर दीजिए।’ भगवान ने कहा –राजन ! ऐसा ही होगा। किंतु मैं अपने समान पुत्र कहाँ खोजूँ ! अब आप दोनों मेरे आदेश से कुछ समय तक इन्द्र की अमरावती में जाकर निवास करें। त्रेता में जब आप अयोध्या के राजा दशरथ होंगे, तब मैं अपने अंशों सहित तार रूपों में अवतार लूँगा।’ ऐसा कहकर भगवान अंतरध्यान हो गए।


देवताओं की भगवान् अवतार के लिए प्रार्थना



ब्रह्माके वरदान के बल पर रावण अजेय हो चुका था। उने कुबेर के पुष्पक –विमान तथा उनकी राजधानी लंका पर जबरन अधिकार कर लिया। देवराज इन्द्र को परास्त कर उसने अमरावती को जीत लिया। देव, पितर, यक्ष, किन्नर, मनुष्य-कोई भी ऐसा नहीं बचा, जो दसमुख के आगे परासत् होकर उसके क्रूर शासन का शिकार न हुआ हो। सूर्य, पवन, चन्द्र, आदि देवता उसके आदेश कापालन करते थे। समुद्र रावण से भयभीत रहता था। दसों दिक्पाल उसके भय से थर्राते थे। पृथ्वी, आकाश, पाताल, सबपर रावण का अधिकार हो गया। लोग पितामह ब्रह्मा उसके यहाँ नित्य वेद पाठ के लिए जाते थे। देवताओं को उसने दर-दर भटकने के लिए बाध्य कर दिया। सृष्टि में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं बचा, जिसने रावण के आगे घुटने न टेक दिया हो। धर्म-कर्मका तो कोई नाम लेने वाला भी नहीं दिखाई देता था। उसके राज्यमें चारों तरफ अधर्म का साम्राज्य स्थापित हो गया।

रावण के अत्याचार से संतप्त होकर एक दिन सभी देवता मिलकर एक साथ ब्रह्मा जी के पास गए और कहा—‘पितामह ! आपके वरदान के बल से रावण धर्म को निर्मूल करने में लगा है। चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच गयी है। धरती माँ भी उसके अत्याचार से व्याकुल हो उठी हैं। हम सभी देवताओं के अधिकार व पद उसने छीन लिया है। आपने ही उसको वरदान देकर सबल बनाया है। अतः आप ही उसके अत्याचारों को समाप्त करने का कोई उचित उपाय भी समझाने की कृपा करें।’ ब्रह्माजी ने कहा—‘देवताओं ! मैं भी रावण को वर देकर विवश हो चुका हूँ। मेरी बुद्धि भी इस विषय में मेरा साथ देने में असमर्थ है। हाँ, यदि श्रीहरि की सहायता मिल जाए तो बात बन सकती है, वह एकमात्र हम सबके रक्षक हैं।’ ब्रह्माजी का यह विचार सबको उचित लगा। सब लोगों ने साधु ! साधु !! कहकर इसका समर्थन किया।

सभी देवता आपस में विचार करने लगे कि प्रभु से मिलने के लिए कहाँ जाएँ। जितने देव उतने मत। कोई वैकुण्ठ की बात करता तो कोई क्षीरसिन्धु में जाने के लिए कहता। उस सभा में भगवान शिव भी उपस्थित थे। उन्होंने कहा—‘प्रभु से जल, थल, आकाश, पाताल-कोई भी स्थान खाली नहीं है; आवश्यकता है उन्हें प्रेम से पुकारने की।’ भगवान शिव की बात सबको अच्छी लगी। सभी देवता बड़े ही प्रेम से हाथ जोड़कर अत्यन्त श्रद्धा-प्रेम से भगवान की स्तुति करने लगे।  





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