अतिरिक्त >> उल्टा दांव उल्टा दांवप्रबोध कुमार सान्याल
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उल्टा दांव पुस्तक का आई पैड संस्करण
आई पैड संस्करण
एक जमाना था जब नई बहू के साथ मायके की कोई नौकरानी या नायन आया करती थी। ससुराल के अपरिचित वातावरण में लड़की अकेलापन महसूस न करे, बस इसी ख्याल से माता-पिता साथ में किसी ऐसी दासी को भेज देते थे जिससे लड़की हिली हुई होती थी। उधर ससुराल वाले भी नई बहू की तरफ से निश्चिंत से रहते थे। कम से कम उन्हें यह चिंता तो नहीं रहती थी कि बहू ठीक से खाती-पीती है या नहीं। और धीरे-धीरे जब लड़की ससुराल में रम जाती तो तरह-तरह के इनामों से अपनी झोली भर हँसी-खुशी वह दासी वहाँ से बिदा ले लेती। किंतु उस काल की बहू होती थी किशोरी कन्या जो एक बन्द कली व कच्चा फल रहते ही ससुराल आ जाती थी। सास-ससुर, जेठ-जेठानी, ननद-देवर के स्नेह-सिंचन से वह कली चिटक कर फूल बनती, पति के प्यार की गर्मी पाकर वह कच्चा फल पकता। लेकिन अब जमाना बदल गया है। शिवानी ने बहू बन कर ससुराल में पैर रक्खा–रस से छलकते–परिपक्व फल के रूप में, सौरभ से परिपूर्ण–पूर्ण विकसित पुष्प के रूप में! अपनी देखभाल के लिए अपने साथ वह कोई दासी नहीं लाई। बल्कि वह लाई अपने अधरों की मधुर मृदु मुस्कान! वह इस घर में आई नवजीनव के संचार की तरह–मानों मधुमालती की लता हो, जिसकी हवा का हर झोंका चारों ओर सुगंध बिखेर जाता हो। शंख बजाने वालों ने शंख बजाया पर केवल नई बहू की अभ्यर्थना के लिए नहीं, इस शंख-ध्वनि के माध्यम से उन्होंने दूर-दूर तक मानों हर श्रोता के कानों में यह संवाद पहुँचा दिया कि मैत्र-परिवार में एक नवयुगीन गृहलक्ष्मी का पर्दापण हुआ है। इस पुस्तक के कुछ पृष्ठ यहाँ देखें।
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