उपन्यास >> ढाई घर ढाई घरगिरिराज किशोर
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साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘ढाई घर’
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित इस ‘ढाई घर’ उपन्यास में ऐसे अनेक रंग, रेखाएँ, चरित्र और परिवेश के स्वर हैं जो नये समाज और उसकी धड़कन को बिल्कुल नई भंगिमा के साथ प्रस्तुत करते हैं।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘ढाई घर’ के लेखक गिरिराज किशोर प्रख्यात उपन्यासकार, सफल कहानीकार, नाटककार और निबन्धकार भी हैं। और यह केवल इसलिए कि उनका लेखन ज़िन्दगी की विविधताओं और जटिलताओं को समझने और जीने में मदद करता है। उनकी कहानियों में भी यह गुण पूरी तरह विद्यमान है। मुज़फ्फरनगर (उ.प्र.) में जन्मे गिरिराज जी आई.आई.टी. कानपुर के ‘रचनात्मक लेखन एवं प्रकाशन केन्द्र’ के निदेशक रह चुके हैं।
यह उपन्यास क्यों ?
जब मेरे सामने बिशन भाई का यह प्रस्ताव आया कि मैं ‘जुगलबन्दी’ जैसा ही उपन्यास लिखूँ तो ऐसा नहीं कि मैं यह न समझा हूँ कि इस वाक्य में व्यंजना क्या है। लेकिन न जाने कैसे वह वाक्य ज्यूँ का त्यूँ मेरे दिमाग़ में उतर गया। मेरे अन्तर्मन में यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ - क्या वास्तव में ‘जुगलबन्दी’ में सब कुछ कहा जा चुका ? उसके अलावा कुछ नहीं कहना ? लगभग ऐसा ही प्रश्न तब भी उठा था जब ‘लोग’ लिख लेने के बाद ‘जुगलबन्दी’ लिखने की बात दिमाग़ में आयी थी। पर तब यह प्रश्न इतना स्पष्ट नहीं था। बस बात यहीं तक आकर रह गयी थी कि ‘लोग’ के बाद ‘जुगलबन्दी’ लिखना ठीक होगा या नहीं ? तब इतने-से उत्तर से ही काम चल गया था कि ‘लोग’ ‘जुगलबन्दी’ नहीं है। ‘जुगलबन्दी’ का लिखा जाना अभी बाकी है। वास्तव में ‘जुगलबन्दी’ ‘लोग’ था भी नहीं। इस बार यह सावल कुछ ज़्यादा सिद्दत को साथ, कई लोगों के सामने आया। आखिर उस वातावरण पर कब तक लिखते रहोगे ? क्या तुम्हारे पास लिखने को और कुछ नहीं ? मेरे कुछ मित्रों ने यह भी कहा कि अगर ऐसा ही है तो ‘जुगलबन्दी’ का दूसरा भाग क्यों नहीं लिख लेते ? सर मैं सच कहूँ कि इन सवालों ने मुझे अपने आपको और ज़्यादा टटोलने का मौका दिया। मुझे यही लगा कि अभी तो उस वातावरण और समाज के ऐसे बहुत से पक्ष बाकी हैं जिनका, नये बनते या बने समाज को समझने के लिए, सामने आना ज़रूरी है। उन बातों को मैं नहीं कहूँगा तो शायद मेरी पीढी का कोई और लेखक न कहे। जाना हुआ जीवन कई बार अपने आपको छोटे-छोटे अन्तरालों के बाद टुकड़ों-टुकड़ों में खोलता चलता है और लेखक के लिए चुनौती बनता जाता है। लेखक को उस चुनौती का खुले दिलो-दिमाग़ के साथ सामना करना पड़ता है।
गिरिराज किशोर का जीवन परिचय
जन्म – 8 जुलाई, 1937, मुज़फ्फरनगर (उ.प्र.)।
आई.आई.टी. कानपुर में कुलसचिव, और रचनात्मक लेखन केन्द्र, आई. आई. टी. कानपुर के अध्यक्ष पद से 1997 में सेनानिवृत्त।
पुरस्कार व सम्मान – साहित्य अकादमी पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, कैम्ब्रिज, इंग्लैण्ड द्वारा इण्टरनेशनल ऑर्डर ऑफ मेरिट गोल्ड मेडल, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का विशिष्ट महात्मा गांधी सम्मान, व्यास सम्मान, भारतीय भाषा का परिषद का ‘शतदल’ पुरस्कार, कानपुर वि. वि. द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि, संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार द्वारा एमेरिटस फैलोशिप, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के फैलो आदि।
प्रकाशित कृतियाँ – उपन्यास – ढाई घर, जुगलबन्दी, चिड़ियाघर, यातनाघर, दो, इन्द्र सुनें, दावेदार, तीसरी सत्ता, यथा-प्रस्तावित, परिशिष्ट, असलाह, यात्राएँ, अन्तधर्वंस, अष्टचक्र (दो खण्डों में)।
कहानी-संग्रह – दुश्मन और दुश्मन, नीम के फूल, चार मोती बेआब, पेपरवेट, शहर-दर-शहर, हम प्यार कर लें, गाना बड़े गुलाम अली खाँ का, जगत्तारिणी, वल्दरोजी, यह देह किसकी है।
नाटक – गाँधी को फाँसी दो, नरमेध, प्रजा ही रहने दो, घार और घोड़ा, चेहरे-चेहरे किसके चेहरे, केवल मेरा नाम लो, जुर्म आयद, काठ की तोप, गुलाम-बेगम-बादशाह।
निबन्ध-संग्रह – देखो जग बौराना, संवाद सेतु, लिखने का तर्क, कथ-अकथ, एक जनभाषा की त्रासदी।
सम्प्रति – सम्पादक ‘अकार’।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘ढाई घर’ के लेखक गिरिराज किशोर प्रख्यात उपन्यासकार, सफल कहानीकार, नाटककार और निबन्धकार भी हैं। और यह केवल इसलिए कि उनका लेखन ज़िन्दगी की विविधताओं और जटिलताओं को समझने और जीने में मदद करता है। उनकी कहानियों में भी यह गुण पूरी तरह विद्यमान है। मुज़फ्फरनगर (उ.प्र.) में जन्मे गिरिराज जी आई.आई.टी. कानपुर के ‘रचनात्मक लेखन एवं प्रकाशन केन्द्र’ के निदेशक रह चुके हैं।
यह उपन्यास क्यों ?
जब मेरे सामने बिशन भाई का यह प्रस्ताव आया कि मैं ‘जुगलबन्दी’ जैसा ही उपन्यास लिखूँ तो ऐसा नहीं कि मैं यह न समझा हूँ कि इस वाक्य में व्यंजना क्या है। लेकिन न जाने कैसे वह वाक्य ज्यूँ का त्यूँ मेरे दिमाग़ में उतर गया। मेरे अन्तर्मन में यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ - क्या वास्तव में ‘जुगलबन्दी’ में सब कुछ कहा जा चुका ? उसके अलावा कुछ नहीं कहना ? लगभग ऐसा ही प्रश्न तब भी उठा था जब ‘लोग’ लिख लेने के बाद ‘जुगलबन्दी’ लिखने की बात दिमाग़ में आयी थी। पर तब यह प्रश्न इतना स्पष्ट नहीं था। बस बात यहीं तक आकर रह गयी थी कि ‘लोग’ के बाद ‘जुगलबन्दी’ लिखना ठीक होगा या नहीं ? तब इतने-से उत्तर से ही काम चल गया था कि ‘लोग’ ‘जुगलबन्दी’ नहीं है। ‘जुगलबन्दी’ का लिखा जाना अभी बाकी है। वास्तव में ‘जुगलबन्दी’ ‘लोग’ था भी नहीं। इस बार यह सावल कुछ ज़्यादा सिद्दत को साथ, कई लोगों के सामने आया। आखिर उस वातावरण पर कब तक लिखते रहोगे ? क्या तुम्हारे पास लिखने को और कुछ नहीं ? मेरे कुछ मित्रों ने यह भी कहा कि अगर ऐसा ही है तो ‘जुगलबन्दी’ का दूसरा भाग क्यों नहीं लिख लेते ? सर मैं सच कहूँ कि इन सवालों ने मुझे अपने आपको और ज़्यादा टटोलने का मौका दिया। मुझे यही लगा कि अभी तो उस वातावरण और समाज के ऐसे बहुत से पक्ष बाकी हैं जिनका, नये बनते या बने समाज को समझने के लिए, सामने आना ज़रूरी है। उन बातों को मैं नहीं कहूँगा तो शायद मेरी पीढी का कोई और लेखक न कहे। जाना हुआ जीवन कई बार अपने आपको छोटे-छोटे अन्तरालों के बाद टुकड़ों-टुकड़ों में खोलता चलता है और लेखक के लिए चुनौती बनता जाता है। लेखक को उस चुनौती का खुले दिलो-दिमाग़ के साथ सामना करना पड़ता है।
गिरिराज किशोर का जीवन परिचय
जन्म – 8 जुलाई, 1937, मुज़फ्फरनगर (उ.प्र.)।
आई.आई.टी. कानपुर में कुलसचिव, और रचनात्मक लेखन केन्द्र, आई. आई. टी. कानपुर के अध्यक्ष पद से 1997 में सेनानिवृत्त।
पुरस्कार व सम्मान – साहित्य अकादमी पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, कैम्ब्रिज, इंग्लैण्ड द्वारा इण्टरनेशनल ऑर्डर ऑफ मेरिट गोल्ड मेडल, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का विशिष्ट महात्मा गांधी सम्मान, व्यास सम्मान, भारतीय भाषा का परिषद का ‘शतदल’ पुरस्कार, कानपुर वि. वि. द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि, संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार द्वारा एमेरिटस फैलोशिप, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के फैलो आदि।
प्रकाशित कृतियाँ – उपन्यास – ढाई घर, जुगलबन्दी, चिड़ियाघर, यातनाघर, दो, इन्द्र सुनें, दावेदार, तीसरी सत्ता, यथा-प्रस्तावित, परिशिष्ट, असलाह, यात्राएँ, अन्तधर्वंस, अष्टचक्र (दो खण्डों में)।
कहानी-संग्रह – दुश्मन और दुश्मन, नीम के फूल, चार मोती बेआब, पेपरवेट, शहर-दर-शहर, हम प्यार कर लें, गाना बड़े गुलाम अली खाँ का, जगत्तारिणी, वल्दरोजी, यह देह किसकी है।
नाटक – गाँधी को फाँसी दो, नरमेध, प्रजा ही रहने दो, घार और घोड़ा, चेहरे-चेहरे किसके चेहरे, केवल मेरा नाम लो, जुर्म आयद, काठ की तोप, गुलाम-बेगम-बादशाह।
निबन्ध-संग्रह – देखो जग बौराना, संवाद सेतु, लिखने का तर्क, कथ-अकथ, एक जनभाषा की त्रासदी।
सम्प्रति – सम्पादक ‘अकार’।
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