उपन्यास >> बाणभट्ट की आत्मकथा (अजिल्द) बाणभट्ट की आत्मकथा (अजिल्द)हजारी प्रसाद द्विवेदी
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बाणभट्ट द्वारा अपने महाकाव्य "हर्षचरित" में समाप्त भूमिका के रूप में दी गई है। इसमें वराह अवतार के माध्यम से भगवान विष्णु की स्तुति की गई है, जिसके द्वारा कवि अपने काव्य का समाप्ति करता है।
Banbhatt Ki Aatamkatha -A Hindi Book by Hazariprasad Dwivedi - बाणभट्ट की आत्मकथा - हजारीप्रसाद द्विवेदी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानायक कोरा भावुक कवि नहीं वरन् कर्मनिरत और संघर्षशील जीवन-योद्धा है। उसके लिए ‘शरीर केवल भार नहीं, मिट्टी का एक ढेला नहीं, बल्कि ‘उससे बड़ा’ है और उसके मन में आर्यावर्त के उद्धार का निमित्त बनने की तीव्र बेचैनी है। ‘अपने को निशेष भाव से दे देने’ में जीवन की सार्थकता देखनेवाली निउनिया और ‘सबकुछ भूल जाने की साधना’ में लीन महादेवी भट्टिनी के प्रति उसका प्रेम जब उच्चता का वरण कर लेता है तो यही गूँज अंत में रह जाती है-‘‘वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज है कि प्रेम के देवता को उसकी नयनाग्नि में भस्म कराके ही कवि गौरव का अनुभव करे।
महावराहः स्फुट—पद्मलोचनः।
रसातलादुत्पल – पत्र- सन्निभः
समुत्थितो नील इवाचलो महान्।।
जलौघमग्ना सचराचरा धरा
विषाणकोट्याऽशिलविश्वमूर्त्तिना।
समुद्धृता येन वराहरूपिणा
स मे स्वयंभूर्भगवान् प्रसीदतु।।
बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ कथामुख
‘‘हाँ रे, शोण नद।’’
‘‘कुछ मिला है, दीदी ?’’
‘‘बहुत-कुछ। कल आना।’’
मैं पचहत्तर वर्ष की इस बुढ़िया के साहस और अध्यवसाय की बात सोचकर हैरान था। उस समय उठ गया। आहार के समय एक बार लौटकर फिर आया। सोचा, इस समय दीदी को घर पर भोजन के लिए ले चलूँ। पर देखा, दीदी सामने मैदान में ध्यानस्थ बैठी हैं। आहा, चाँदनी इसी को तो कहते हैं। सारा आकाश घने नीलें-वर्ण के अच्छोद सरोवर की भाँति एक दिगंत से दूसरे दिगंत तक फैला हुआ था। उसमें राजहंस की भाँति चंद्रमा धीरे-धीरे तैर रहा था। दूर कोने में एक –दो मेघ-शिशु दिन-भर के थके-माँदे सोए हुए थे। नीचे से ऊपर तक केवल चांदनी-ही-चाँदनी फैली थी और मैदान में दीदी निश्चल समाधि की अवस्था में बैठी थीं। पास ही खड़ा एक छोटा-सा खजूरी-वृक्ष सारी शून्यता को समता दे रहा था। मैं चुपचाप खिसक गया।
दूसरे दिन मैं शाम को दीदी के स्थान पर पहुँचा। नौकर से् मालूम हुआ कि उस रात को दीदी दो बजे तक चुपचाप बैठी रहीं और फिर एकाएक अपनी टेबिल पर आकर लिखने लगीं, रात-भर लिखती रहीं और लिखने में ऐसी तन्मय थीं कि दूसरे दिन आठ बजे तक लालटेन बुझाये बिना लिखती ही रहीं फिर टेबिल पर ही सिर रखकर लेट गईं। और शाम के तीन बजे तक लेटी रहीं। फिर उन्होंने स्नान किया और अब चाय पीने जा रही हैं। चाय पीते-पीते दीदी से बात करना बड़ा मनोरंजक होता था, सो मैंने अपना भाग्य सराहा। दीदी चाय पीने का आयोजन कर रही थीं। मुझे देखकर बहुत प्रसन्न हुईं और बोलीं, ‘‘तुझे ही खोज रही थी। शोण-यात्रा में उपलब्ध सामग्री का हिंदी रुपांतर मैंने कर लिया है। तू इसे एक बार पढ़ तो भला। देख, मेरी हिंदी में जो गलती है, उसे सुधार दे और आनंद से इसका अँगरेजी में उल्था करा ले। ले भला !’’
यह ‘ले भला !’ दीदी का स्नेह-संभाषण था। जब वे अपने नातियों पर बहुत खुश होतीं, तो उन्हें कुछ देते समय कहती जातीं—‘ले भला।’ आज तक इस स्नेह वाक्य के साथ चाय और बिस्कुट ही मिला करते थे; पर आज मिला कागज का एक बड़ा-सा पुलिंदाष। दीदी ने उसे देकर कहा कि यह उनकी दो सौ मील की पदल यात्रा का सुपरिणाम है। फिर कहने लगीं, ‘‘तु इसे आर्ज हगी रात को ठीक कर ले और कल पाँच बडे की गाड़ी से कलकत्ते जाकर टाइप करा ला। परसों मुझे इसकी कापियाँ मिल जानी चाहिए।’’
मैंने सकुचाते हुए कहा, ‘‘दीदी, कोई पांडुलिपि मिली है क्या ?’’
दीदी ने डाटते हुए कहा, ‘‘एक बार पढ़के तो देख। इसका रहस्य फिर पूछना। तू बडा़ आलसी है। देख रे, बड़े दुःख की बात बता रही हूँ पुरुष का जन्म पाया है, आलस बड़कर काम कर। स्त्रियाँ चाहें भी तो आलस्यहीन होकर कहाँ काम कर सकती हैं ? मेरे जीवन के वे दिन लज्जा और संकोच में ही निकल गये, जब काम करने की ताकत थी। अब वृद्धावस्था में न तो उतना उत्साह रह गया है और न शक्ति ही। तू बड़ा आलसी है। बाद में पछताएगा। पुरुष होकर इतना आलसी होना ठीक नहीं। तू समझता है, यूरोप की पराधीनता जरूर कम है; पर प्रकृति की पराधीनता तो हटाई नहीं जा सकती। आज देखती हूँ कि जीवन के 68 वर्ष व्यर्थ ही बीत गए।’’
मैंने देखा, दीदी की आँखें गीली हो गई हैं और उनका पोपला मुख कुछ कहने के लिए व्याकुल है; पर बात निकल नहीं रही है। जैसे शब्द ही न मिल रहे हों। न जाने किस अतीत में उनका चित्त धीरे-धीरे डूब गया। और मैं चुप बैठा रहा, उस दिन दीदी का चाय पीना नहीं हुआ। जब दीदी का ध्यान भंग हुआ, तो उनकी आँखों से पानी की धारा झर रही थी ओर वे उसे पोंछने का प्रयत्न भी नहीं कर रही थीं।
मैंने अनुभव किया कि दीदी किसी बीती हुई घटना का ताना-बाना सुलझा रही हैं। उधर से ध्यान हटाने के लिए मैंने प्रश्न किया, ‘‘दीदी, आजकल, शोण में नावें चलती हैं ?’’ दीदी ने मुस्करा दिया। उसका भाव था कि ‘मैं समझ गई, तू मेरा ध्यान दूसरी ओर ले जाना चाहता है।’ फिर बोलीं, ‘‘देख, मैं यहाँ ज्यादा नहीं ठहर सकती। इस अनुवाद को तू ज़रा ध्यान से पढ़ और कल कलकत्ते जाकर टाइप करा ला। दो-एक चित्र भी पुस्तक में देने होंगे। जा, जल्दी कर।’’
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