गीता प्रेस, गोरखपुर >> आदर्श संत आदर्श संतसुदर्शन सिंह
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प्रस्तुत पुस्तक में प्रमुख सोलह संतों का वर्णन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्रीहरि:
आदर्श संत
श्रीज्ञानेश्वर
श्रीविट्ठल पन्तके तीन पुत्र और एक कन्या थी। उनके नाम थे निवृत्तिनाथ,
ज्ञानेश्वर, सोपानदेव और मुक्ताबाई। श्री विट्ठल पन्तने अपने गुरु स्वामी
श्रीरामानन्दजीकी आज्ञा से संन्यास लेने के बाद पुन: गृहस्थ धर्म स्वीकार
कर लिया था। अत: ब्राह्मणों के आदेश से अपनी पत्नी श्रीरुक्मिणी बाईके साथ
उन्होंने प्रायश्चित करने के लिये प्रयाग त्रिवेणी-संगम में देह-त्याग कर
दिया। उस समय उनके चारों पुत्र बहुत छोटे थे। श्रीविट्ठल पन्त गृहस्थ होकर
भी अत्यन्त त्याग का ही जीवन व्यतीत करते थे। उनके देह-त्याग के समय उनके
घर में कोई सम्पत्ति नहीं थी। भिक्षा माँगकर ही उनके बालक अपना निर्वाह
करते थे।
श्रीज्ञानेश्वर का जन्म भाद्र कृष्ण अष्टमी सं. 1332 में आलन्दी में हुआ था। उनकी पाँच वर्ष की अवस्था में ही उनके माता-पिता ने देह-त्याग कर दिया। इसके बाद आलन्दी के ब्राह्मणों ने कहा- ‘यदि पैठण के विद्वान् तुम लोगों को यज्ञोपवीत का अधिकारी मान लेंगे तो हम लोग भी उसे स्वीकार कर लेंगे।’ ब्राह्मणों की सम्मति मानकर वे चारों बालक पैठण गये। उस समय मुक्ताबाई तो बहुत ही छोटी बालिका थीं। पैठण पहुँचने पर वहाँ के विद्वान् ब्राह्मणों की सभा हुई। उन लोगों ने कहा- ‘इन बालकों की शुद्धि केवल भगवान् की अनन्य भक्ति करने से हो सकती है।’
ब्राह्मणों ने यज्ञोपवीत का अधिकार नहीं बताया। इससे भी इन लोगों को कोई दु:ख नहीं हुआ। ब्राह्मणों के निर्णय को इन लोगों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
ये चारों भाई-बहिन जन्म से ही परम भक्त, ज्ञानी और अद्भुत योगसिद्ध थे। श्रीज्ञानेश्वरजी तो योग की जैसे मूर्ति ही थे। कुछ दुष्ट लोग इन बालकों के पीछे पड़कर इन्हें तंग किया करते थे। पैठण में दुष्ट लोगों ने इन पर व्यंग किये और अन्त में ज्ञानेश्वरजी से कहा-‘यदि तुम सबमें एक आत्मा देखते हो तो भैंस के वेदपाठ कराओ।’ ज्ञानेश्वरजी ने जैसे ही भैंसे के ऊपर हाथ रखा कि उसके मुख से शुद्ध वेदमन्त्र निकलने लगे।
श्राद्ध समय जब पैठण के ब्राह्मणों ने इनके यहाँ भोजन करना स्वीकार नहीं किया, तब ज्ञानेश्वरजीने पितरों को प्रत्यक्ष बुलाकर उन्हें भोजन कराया। इस चमत्कार को देखकर पैठण के ब्राह्मणों ने इन्हें शुद्धिपत्र लिखकर दे दिया।
कुछ दिन पैठण रहकर सभी लोग भाइयों के साथ ज्ञानेश्वरजी नेवासे स्थान में आये। इसी स्थान में उन्होंने अपने बड़े भाई श्रीनिवृत्तिनाथजी के आदेश से गीता का ज्ञानेश्वरी भाष्य सुनाया। वे अपने बड़े भाई को गुरु मानते थे। ज्ञानेश्वरी सुनाने के समय उनकी अवस्था केवल पंद्रह वर्ष की थी।
उसके बाद ज्ञानेश्वरजी ने अपने सब भाई और बहिन मुक्ताबाई के साथ तीर्थयात्रा प्रारम्भ की। इस यात्रा में अनेक प्रसिद्ध संत उनके साथ हो गये। उज्जैन, प्रयाग, काशी, गया, वृन्दावन, द्वारिका आदि तीर्थों की यात्रा करके वे फिर पण्ढरपुर लौट गये।
समस्त दक्षिण भारत में ज्ञानेश्वर महाराज पूजित होने लगे थे। उस समय के सभी प्रसिद्ध संत उनका बहुत सम्मान करते थे। कुल इक्कीस वर्ष की अवस्था में मार्गशीर्ष कृष्ण 13 सं. 1353 को उन्होंने जीवित समाधि ले ली। उसके एक वर्ष के भीतर ही सोपानदेव, मुक्ताबाई और श्रीनिवृत्तिनाथजी भी इस लोक से परमधाम चले गये।
श्रीज्ञानेश्वर का जन्म भाद्र कृष्ण अष्टमी सं. 1332 में आलन्दी में हुआ था। उनकी पाँच वर्ष की अवस्था में ही उनके माता-पिता ने देह-त्याग कर दिया। इसके बाद आलन्दी के ब्राह्मणों ने कहा- ‘यदि पैठण के विद्वान् तुम लोगों को यज्ञोपवीत का अधिकारी मान लेंगे तो हम लोग भी उसे स्वीकार कर लेंगे।’ ब्राह्मणों की सम्मति मानकर वे चारों बालक पैठण गये। उस समय मुक्ताबाई तो बहुत ही छोटी बालिका थीं। पैठण पहुँचने पर वहाँ के विद्वान् ब्राह्मणों की सभा हुई। उन लोगों ने कहा- ‘इन बालकों की शुद्धि केवल भगवान् की अनन्य भक्ति करने से हो सकती है।’
ब्राह्मणों ने यज्ञोपवीत का अधिकार नहीं बताया। इससे भी इन लोगों को कोई दु:ख नहीं हुआ। ब्राह्मणों के निर्णय को इन लोगों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
ये चारों भाई-बहिन जन्म से ही परम भक्त, ज्ञानी और अद्भुत योगसिद्ध थे। श्रीज्ञानेश्वरजी तो योग की जैसे मूर्ति ही थे। कुछ दुष्ट लोग इन बालकों के पीछे पड़कर इन्हें तंग किया करते थे। पैठण में दुष्ट लोगों ने इन पर व्यंग किये और अन्त में ज्ञानेश्वरजी से कहा-‘यदि तुम सबमें एक आत्मा देखते हो तो भैंस के वेदपाठ कराओ।’ ज्ञानेश्वरजी ने जैसे ही भैंसे के ऊपर हाथ रखा कि उसके मुख से शुद्ध वेदमन्त्र निकलने लगे।
श्राद्ध समय जब पैठण के ब्राह्मणों ने इनके यहाँ भोजन करना स्वीकार नहीं किया, तब ज्ञानेश्वरजीने पितरों को प्रत्यक्ष बुलाकर उन्हें भोजन कराया। इस चमत्कार को देखकर पैठण के ब्राह्मणों ने इन्हें शुद्धिपत्र लिखकर दे दिया।
कुछ दिन पैठण रहकर सभी लोग भाइयों के साथ ज्ञानेश्वरजी नेवासे स्थान में आये। इसी स्थान में उन्होंने अपने बड़े भाई श्रीनिवृत्तिनाथजी के आदेश से गीता का ज्ञानेश्वरी भाष्य सुनाया। वे अपने बड़े भाई को गुरु मानते थे। ज्ञानेश्वरी सुनाने के समय उनकी अवस्था केवल पंद्रह वर्ष की थी।
उसके बाद ज्ञानेश्वरजी ने अपने सब भाई और बहिन मुक्ताबाई के साथ तीर्थयात्रा प्रारम्भ की। इस यात्रा में अनेक प्रसिद्ध संत उनके साथ हो गये। उज्जैन, प्रयाग, काशी, गया, वृन्दावन, द्वारिका आदि तीर्थों की यात्रा करके वे फिर पण्ढरपुर लौट गये।
समस्त दक्षिण भारत में ज्ञानेश्वर महाराज पूजित होने लगे थे। उस समय के सभी प्रसिद्ध संत उनका बहुत सम्मान करते थे। कुल इक्कीस वर्ष की अवस्था में मार्गशीर्ष कृष्ण 13 सं. 1353 को उन्होंने जीवित समाधि ले ली। उसके एक वर्ष के भीतर ही सोपानदेव, मुक्ताबाई और श्रीनिवृत्तिनाथजी भी इस लोक से परमधाम चले गये।
श्रीज्ञानेश्वर की शिक्षा
सबमें व्यापक एक समान।
आत्मरूप से श्रीभगवान्।।
वही सत्य है सबका रूप।
वही एक त्रिभुवन का भूप।।
उसे छोड़कर सत्य नहीं है।
जगमें कोई तथ्य नहीं है।।
नाम-रूपमय यह संसार।
देखो सोचो सदा असार।।
जब इससे होगा वैराग।
होगा श्रीविट्ठल से राग।।
तब होगा यह अन्तर शुद्ध।
तब नर होगा सत्य प्रबुद्ध।।
राग-द्वेष मोहादिक चोर।
भरे हृदय में लख तम घोर।।
जगे वहाँ जब ज्ञान प्रकाश।
तब ये सब पायेंगे नाश।।
भोगों का हो मनसे त्याग।
तब प्रभुमें होता अनुराग।।
तब मिलता है पावन ज्ञान।
ज्ञान मोक्षप्रद शुद्ध महान्।।
आत्मरूप से श्रीभगवान्।।
वही सत्य है सबका रूप।
वही एक त्रिभुवन का भूप।।
उसे छोड़कर सत्य नहीं है।
जगमें कोई तथ्य नहीं है।।
नाम-रूपमय यह संसार।
देखो सोचो सदा असार।।
जब इससे होगा वैराग।
होगा श्रीविट्ठल से राग।।
तब होगा यह अन्तर शुद्ध।
तब नर होगा सत्य प्रबुद्ध।।
राग-द्वेष मोहादिक चोर।
भरे हृदय में लख तम घोर।।
जगे वहाँ जब ज्ञान प्रकाश।
तब ये सब पायेंगे नाश।।
भोगों का हो मनसे त्याग।
तब प्रभुमें होता अनुराग।।
तब मिलता है पावन ज्ञान।
ज्ञान मोक्षप्रद शुद्ध महान्।।
श्रीनामदेव
नरसी ब्राह्मणी नामक स्थान में कार्तिक शुक्ल 11 संवत् 1327 को नामदेवजी
का जन्म हुआ। इनके पिता का नाम दामा शेट और माता का नाम गोणाई था। परम्परा
से यह कुल दर्जी का काम करता था और श्रीविट्ठल का भक्त था।
नामदेवजी ने जैसे ही अक्षर लिखना सीखा, वे केवल ‘विट्ठल’ नाम ही बार-बार लिखा करते थे। उनका भगवत्प्रेम इतना सच्चा था कि भगवान्की मूर्ति के सामने अड़कर बैठ जाते-‘तुम दूध पियो तो मैं पिऊँगा।’ उस आठ वर्ष के बालक के हठ के सामने भगवान् को प्रकट होकर दूध पीना पड़ता था।
नौ वर्ष की अवस्था में श्री नामदेवजी का विवाह हो गया। किन्तु इन्होंने गृहस्थी की ओर ध्यान नहीं दिया। घर छोड़कर पण्ढरपुर चले गये और वहीं बस गये। इनकी स्त्री भी वहीं आ गयीं। नामदेवजी के चार पुत्र और कन्याएँ हुईं। इनका परिवार खूब बढ़ गया। किन्तु घर में इनकी आसक्ति कभी नहीं हुई। ये तो श्रीपण्ढरीनाथ में ही चित्त लगाये रहते थे।
नामदेवजी ने जैसे ही अक्षर लिखना सीखा, वे केवल ‘विट्ठल’ नाम ही बार-बार लिखा करते थे। उनका भगवत्प्रेम इतना सच्चा था कि भगवान्की मूर्ति के सामने अड़कर बैठ जाते-‘तुम दूध पियो तो मैं पिऊँगा।’ उस आठ वर्ष के बालक के हठ के सामने भगवान् को प्रकट होकर दूध पीना पड़ता था।
नौ वर्ष की अवस्था में श्री नामदेवजी का विवाह हो गया। किन्तु इन्होंने गृहस्थी की ओर ध्यान नहीं दिया। घर छोड़कर पण्ढरपुर चले गये और वहीं बस गये। इनकी स्त्री भी वहीं आ गयीं। नामदेवजी के चार पुत्र और कन्याएँ हुईं। इनका परिवार खूब बढ़ गया। किन्तु घर में इनकी आसक्ति कभी नहीं हुई। ये तो श्रीपण्ढरीनाथ में ही चित्त लगाये रहते थे।
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