धर्म एवं दर्शन >> सांख्यदर्शनम् सांख्यदर्शनम्आचार्य उदयवीर शास्त्री
|
8 पाठकों को प्रिय 313 पाठक हैं |
सांख्यदर्शनम्
वस्तुतः कापिल सांख्य में जड़ प्रकृति को जगत् का मूल उपादास स्वीकार करने के कारण ईश्वर को जगत् का केवल अधिष्ठदाता व नियन्ता माना गया है, इसी कारण प्रकृति से अतिरिक्त ईश्वर तथा अन्य किसी तत्व को जगत् के उपादान होने को निषेध किया गया है। ईश्वरसिद्धेः सूत्र में भी जगत् उपादान भूत ईश्वर को असिद्ध बताया है। सेवजगन्नियन्ता ईश्वर का यहाँ निषेध नहीं है। पूर्वापर प्रसंग के अनुसार यह अर्थसूत्र के प्रकरण और उसकी टिप्पणी में विस्तार के साथ प्रकट कर दिया हैं सांख्य के अन्य प्रसंगों में भी ईश्वर के जगन्नियन्ता व अधिष्ठाता होने तथा प्रकृति के जगदुपादान होने का विस्तृत वर्णन है।
इससे स्पष्ट है कि वास्तविक सिद्धांत अकाल में ही किस प्रकार भ्रान्ति-घटाओं से आच्छादित होते रहे है। प्रस्तुत भाष्य में उनके विच्छिन्न कर वास्तविकताओं को स्पष्ट करने का प्रस्ताव किया गया है।
इससे स्पष्ट है कि वास्तविक सिद्धांत अकाल में ही किस प्रकार भ्रान्ति-घटाओं से आच्छादित होते रहे है। प्रस्तुत भाष्य में उनके विच्छिन्न कर वास्तविकताओं को स्पष्ट करने का प्रस्ताव किया गया है।
आचार्य उदयवीर शास्त्री का जीवन परिचय
भारतीय दर्शन के उद्भट विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री का जन्म 6 जनवरी 1894 को बुलन्दशहर जिले के बनैल ग्राम में हुआ। मृत्यु 16 जनवरी 1991 को अजमेर में हुई।
प्रारम्भिक शिक्षा गुरुकुल सिकन्दराबाद में हुई। 1910 में गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से विद्याभास्कर की उपाधि प्राप्त की। 1915 में कलकत्ता से वैशेषिक न्यायतीर्थ तथा 1916 में सांख्य-योग तीर्थ की परिक्षाएँ उत्तीर्ण की। गुरुकुल महाविद्यालय ने इनके वैदुष्य तथा प्रकाण्ड पाण्डित्य से प्रभावित होकर विद्यावाचस्पति की उपाधि प्रदान की। जगन्नाथ पुरी के भूतपूर्व शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्णातीर्थ ने आपके प्रौढ़ पाण्डित्य से मुग्ध होकर आपको ‘शास्त्र-शेवधि’ तथा ‘वेदरत्न’ की उपाधियों से विभुषित किया।
स्वशिक्षा संस्थान गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में अध्यापन प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् नेशनल कॉलेज, लाहौर में और कुछ काल दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय में अध्यापक के रूप में रहे। तथा बीकानेर स्थित शार्दूल संस्कृत विद्यापीठ में आचार्य पद पर कार्य किया।
अन्त में ‘विरजानन्द वैदिक शोध संस्थान’ में आ गये। यहाँ रह कर आपने उत्कृष्ट कोटि के दार्शनिक ग्रन्थों का प्रणयन किया।
प्रारम्भिक शिक्षा गुरुकुल सिकन्दराबाद में हुई। 1910 में गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से विद्याभास्कर की उपाधि प्राप्त की। 1915 में कलकत्ता से वैशेषिक न्यायतीर्थ तथा 1916 में सांख्य-योग तीर्थ की परिक्षाएँ उत्तीर्ण की। गुरुकुल महाविद्यालय ने इनके वैदुष्य तथा प्रकाण्ड पाण्डित्य से प्रभावित होकर विद्यावाचस्पति की उपाधि प्रदान की। जगन्नाथ पुरी के भूतपूर्व शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्णातीर्थ ने आपके प्रौढ़ पाण्डित्य से मुग्ध होकर आपको ‘शास्त्र-शेवधि’ तथा ‘वेदरत्न’ की उपाधियों से विभुषित किया।
स्वशिक्षा संस्थान गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में अध्यापन प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् नेशनल कॉलेज, लाहौर में और कुछ काल दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय में अध्यापक के रूप में रहे। तथा बीकानेर स्थित शार्दूल संस्कृत विद्यापीठ में आचार्य पद पर कार्य किया।
अन्त में ‘विरजानन्द वैदिक शोध संस्थान’ में आ गये। यहाँ रह कर आपने उत्कृष्ट कोटि के दार्शनिक ग्रन्थों का प्रणयन किया।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book