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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आदर्श देश-भक्त

आदर्श देश-भक्त

सुदर्शन सिंह

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 875
आईएसबीएन :81-293-0772-3

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प्रस्तुत है प्रमुख देशभक्तों की कहानियों....

Aadarsha Desh Bhakt a hindi book by Sudarshan Singh - आदर्श देश-भक्त - सुदर्शन सिंह

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दादाभाई नौरोजी

बम्बई में 4 सितम्बर सन् 1825 ई. को एक प्रतिष्ठित पारसी कुल में दादाभाई नौरोजी का जन्म हुआ। उनके पिता का परलोकवास उनकी चार वर्ष की अवस्था में ही हो गया; किंतु उनकी माता ने उनकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था की। अपनी प्रखर प्रतिभा के कारण शिक्षा समाप्त होने पर दादाभाई बम्बई में ही प्रोफेसर हो गये। अध्यापन के समय ही वे समाज-सेवा के कार्यों में लग गये थे। समाज में नौतिक सदाचार की की स्थापना हो और जागृति आये, इस उद्देश्य से उन्होंने कई संस्थाओं की स्थापना की। एक गुजराती साप्ताहिक पत्रका भी वे सम्पादन करते थे।

1855 ई. में अध्यापन कार्य छोड़कर व्यापारिक उद्देश्य से उन्हें इंग्लैण्ड जाना पड़ा। वहाँ स्वतन्त्र देश में पहुँचते ही अपने देश की गरीबी और पराधीनता का उन्हें अनुभव हुआ। तभी से वे स्वदेश की गरीबी दूर करने और परतन्त्रकी बेड़ियाँ शिथिल करने के प्रयत्न में लग गये। उस समय तक देश में वर्तमान राजनीति का जन्म भी नहीं हुआ था। 1857 ई. में जो देशभर में स्वतन्त्रता का संघर्ष हुआ और जिसे ‘गदर’ नाम दिया गया, दादाभाई उसके सम्पर्क में नहीं आये थे। वे तो उस राजनीति के जन्मदाता पिता हैं, जिसे आगे जाकर कांग्रेस ने अपनाया लंदन में दादाभाई ने भारत के पक्ष में प्रचार करने के लिये ‘लंदन इंडियन सोसाइटी’ और ‘इस्ट इंडियन एसोसिएशन’ नामक दो संस्थाएँ स्थापित कीं। पढ़ाई के उद्देश्य से इंग्लैंड गये युवकों में से उमेश बनर्जी, मनमोहन घोष, फीरोजशाह मेहता आदि युवकों की उत्साही टोली दादाभाई के नेतृत्व में वहाँ भारत के पक्ष में प्रचार करने लगी। दादाभाई ने इंग्लैंड में स्थान-स्थान पर भाषण दिये, पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा भारतीय स्वराज्य के पक्ष में प्रचार किया। भारत की गरीबी और नौकरशाही के अत्याचार का परिचय इंगलैंड की जनता को हो जाय,. इसका उन्होंने भरपूर प्रयत्न किया।

बीच-बीच में दादाभाई को भारत आना पड़ता था; किंतु उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र इंग्लैंड को बना रखा था। भारतीय कांग्रेस की स्थापना होने पर वे उसमें सम्मिलित हुए। कांग्रेस के दूसरे ही अधिवेशन के सभापति चुने गये। यह अधिवेशन 1886 ई. में कलकत्ते में हुआ। इसके बाद वे 1893 ई. और 1906 ई. के कांग्रेस अधिवेशन के भी सभापति चुने गये। इसी से अनुमान किया जा सकता है कि भारत में उनकी कितनी प्रतिष्ठा थी।

भारत मे ही नहीं, इंग्लैंड में भी दादाभाई नौरोजी का बड़ा सम्मान था। वहाँ पार्लियामेंट की मेम्बरी के चुनाव में खड़े हुए और दूसरी बार के ही प्रयत्न में सन् 1892 में पार्लियामेंट के सदस्य चुन लिये गये। इस चुनाव में सम्मलित होने का भी उनका उद्देश्य भारतीय गरीबी को दूर करने के लिये इंग्लैंड में प्रचार करना ही था।

दादाभाईका पूरा जीवन अपने देश के उत्थान के लिये प्रयत्न करने में लगा। देश की सेवा के लिये उनका लेखनी लगी रही। वे कांग्रेस के ‘वृद्धपितामह’ कहे जाते हैं। कांग्रेस की स्थापना से 40 वर्ष पूर्व से वे लोकसेवा तथा स्वराज्य को लक्ष्य बनाकर कार्य करने में लग गये थे।
30 जून 1917 ई. को 92 वर्ष की अवस्था में बम्बई के पास के अपने निवास-स्थान में उन्होंने देह-त्याग किया।

दादाभाई नौरोजी की शिक्षा


अपना सुख ही देखो मत तुम।
अपनी सुविधा लेखो मत तुम।।
पशु भी यह तो कर लेता है।
खाता, पीता सो लेता है।
देखो अपने चारों ओर।
कितनी बढ़ी गरीबी घोर।।
हैं जन कितने ही असहाय।
दुर्बल, अवस और निरुपाय।।
उनका दुख कैसे हो दूर।
कैसे सुख पायें भरपूर।।
कुछ सोचो कुछ करो उपाय।
सुनो पीड़ितों की भी हाय।।
हों स्वतन्त्र जो अब हैं दास।
खिले बदन पर उनके हास।।
इसे लक्ष्य कर लो तुम अपना।
यही बनाओ अपना सपना।।
मानवता को उठो जगाओ।
दया और उद्यम अपनाओ।।
हारो मत हिय हो उद्योग।
सदा सफलता-साहस-योग।।




सरफिरोजशाह मेहता


दादाभाई नौरोजी ने इंग्लैंड पहुँचकर वहाँ भारतीय गरीबी और नौकरशाही के अत्याचार का परिचय देना प्रारम्भ कर दिया था। भारत को स्वराज्य मिलना चाहिये, इस बात के पक्ष में इंग्लैंड की जनता को वे करना चाहते थे और इसके लिये पूरा प्रयत्न कर रहे थे। फीरोजशाह मेहता उस समय युवक थे और अध्ययन के लिये इंग्लैंड गये थे। वे स्वयं पारसी थे और बम्बई के प्रतिष्ठित पारसी कुल के थे, इसलिये दादाभाई से इनका परिचय शीघ्र हो गया। दादाभाई नौरोजी के कार्य में इन्होंने योग देना प्रारम्भ किया। स्वदेश की कंगाली का अनुभव और उसे दूर करने के लिये प्रयत्न करने की शिक्षा इन्हें लंदन में ही प्राप्त हुई।

बम्बई में सर फिरोजशाह मेहता जनता और सरकार दोनों की दृष्टि में ही अत्यन्त सम्मानित व्यक्ति थे। सम्पन्न होने के साथ वे गम्भीर विद्वान थे। कांग्रेस की स्थापना और उसकी नीति को स्थिर करने में इनका प्रधान हाथ था।
कलकत्ते के कांग्रेस के छठे अधिवेशन (सन् 1890) के ये सभापति हुए।

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