गीता प्रेस, गोरखपुर >> आदर्श सम्राट आदर्श सम्राटसुदर्शन सिंह
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प्रस्तुत पुस्तक में चुने हुए सम्राट रानी आदि का वर्णन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आदर्श सम्राट
सम्राट अशोक चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र विन्दुसार और उनके पुत्र अशोक थे।
अपने पिता की मृत्यु के बाद अशोक मगध-नरेश हुए। बचपन से ही वे
बड़े
तेजस्वी उग्र प्रकृति के थे। सिंहासन पर बैठते ही उन्होंने राज्य का
विस्तार करना प्रारम्भ किया। कम्बोज से दक्षिण भारत के कर्णाटक तक और
बंगाल के काठियावाड़ तक पूरे भारत में कुछ ही समय में उनका राज्य विस्तृत
हो गया। परंतु कलिंग (उड़ीसा) ने उनकी अधीनता नहीं मानी थी। अशोक ने कलिंग
पर चढ़ाई की। वहां के सैनिक बड़े वीरता से लड़ते रहे। यद्यपि अन्त में
अशोक की विजय हो गयी; किन्तु इस युद्ध में इतने अधिक सैनिक मारे गये थे कि
उनकी लाशों का ढेर देखकर अशोक का हृदय ही बदल गया। वहीं उन्होंने भविष्य
में कभी युद्ध न करने का संकल्प किया। कुछ दिनों बाद बौद्ध-भिक्षुओं के
सम्पर्क आने पर अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
बौद्ध-धर्म स्वीकार करने के बाद अशोक अपनी सारी शक्ति धर्म प्रचार में लगा दी। स्थान-स्थान पर पत्थर के खम्भें उन्होंने बनवाये और उन पर बैद्घ-धर्म की शिक्षाएं खुदवायीं। बड़ी-बड़ी चट्टानों पर साधारण सदाचार-सम्बन्धी नियम खुदवाये। बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए उन्होंने कर्मचारी नियुक्त किये। उनके पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा भिक्षु बनकर लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार करने गये। सुदूर चीन –जैसे देशों तक अशोक ने धर्म-प्रचारक भेजे।
बौद्ध-धर्म के प्रचार में लगने वाले भी अशोक ने दूसरे किसी धर्म के साथ अन्याय नहीं किया। वे अन्य धर्मों का आदर करते थे। दान आदि में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था। किसी को भी बलपूर्वक बौद्ध बनाना उनके समय में अपराध माना जाता था।
लोकोपकारी कार्यों को करने में अशोक सदा लगे रहे। उनकी ओर से मनुष्यों और पशुओं के लिए स्थान-स्थान पर चिकित्सालय खोले गये, सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये गये।
अशोक ने आज्ञा दे रखी थी कि जब रात्रि में वे सोते रहते हैं, उस समय भी प्रजा का कोई व्यक्ति उनके पास न्याय की पुकार करता आना चाहे तो उसकी सूचना तुरंत दी जाए।
काश्मीर, गन्धार, लंका, वर्मा, पूर्वी द्वीपसमूह, सीरिया और मिस्र तक अशोक ने अपने दूत भेजे और इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करवाया। अशोक का शासन बहुत ही व्यवस्थित और उदार था। प्रजा खूब सुखी थी प्रजा में सत्य, सदाचार, धार्मिकता का प्रचार तथा प्रतिष्ठा हो, यह अशोक ने अपने शासन का लक्ष्य बना रखा था।
बौद्ध-धर्म स्वीकार करने के बाद अशोक अपनी सारी शक्ति धर्म प्रचार में लगा दी। स्थान-स्थान पर पत्थर के खम्भें उन्होंने बनवाये और उन पर बैद्घ-धर्म की शिक्षाएं खुदवायीं। बड़ी-बड़ी चट्टानों पर साधारण सदाचार-सम्बन्धी नियम खुदवाये। बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए उन्होंने कर्मचारी नियुक्त किये। उनके पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा भिक्षु बनकर लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार करने गये। सुदूर चीन –जैसे देशों तक अशोक ने धर्म-प्रचारक भेजे।
बौद्ध-धर्म के प्रचार में लगने वाले भी अशोक ने दूसरे किसी धर्म के साथ अन्याय नहीं किया। वे अन्य धर्मों का आदर करते थे। दान आदि में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था। किसी को भी बलपूर्वक बौद्ध बनाना उनके समय में अपराध माना जाता था।
लोकोपकारी कार्यों को करने में अशोक सदा लगे रहे। उनकी ओर से मनुष्यों और पशुओं के लिए स्थान-स्थान पर चिकित्सालय खोले गये, सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये गये।
अशोक ने आज्ञा दे रखी थी कि जब रात्रि में वे सोते रहते हैं, उस समय भी प्रजा का कोई व्यक्ति उनके पास न्याय की पुकार करता आना चाहे तो उसकी सूचना तुरंत दी जाए।
काश्मीर, गन्धार, लंका, वर्मा, पूर्वी द्वीपसमूह, सीरिया और मिस्र तक अशोक ने अपने दूत भेजे और इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करवाया। अशोक का शासन बहुत ही व्यवस्थित और उदार था। प्रजा खूब सुखी थी प्रजा में सत्य, सदाचार, धार्मिकता का प्रचार तथा प्रतिष्ठा हो, यह अशोक ने अपने शासन का लक्ष्य बना रखा था।
सम्राट अशोक की शिक्षा
हिंसा सभी पापका मूल।
यही धर्म के है प्रतिकूल ।।
युद्ध जगत में बडा अनर्थ।
युद्ध–विजय भी केवल व्यर्थ।।
बच्चों को कर पिता विहीन।
अबलाओं को पति से हीन ।।
लाशों से धरनी को पाट।
भला कौन सुख लोगे चाट
बढ़ी शत्रुता पाया शाप।।
ऐसी विजय विजय या पाप ?
सच्ची विजय दया है भाई !
दया धर्म सबसे सुखदाई ।।
शान्ति दया में ही बसती है।
दया चाहती सब जगती है।
सबपर करो दया, सुख पायो।
सबको अपना बन्दु बनाओ
करो क्रोध किसी पर भूल।
दुःख करो सबके निर्मूल।।
दो सबको सुख-सुविदा दान
तुम भी पायो शान्ति महान।।
यही धर्म के है प्रतिकूल ।।
युद्ध जगत में बडा अनर्थ।
युद्ध–विजय भी केवल व्यर्थ।।
बच्चों को कर पिता विहीन।
अबलाओं को पति से हीन ।।
लाशों से धरनी को पाट।
भला कौन सुख लोगे चाट
बढ़ी शत्रुता पाया शाप।।
ऐसी विजय विजय या पाप ?
सच्ची विजय दया है भाई !
दया धर्म सबसे सुखदाई ।।
शान्ति दया में ही बसती है।
दया चाहती सब जगती है।
सबपर करो दया, सुख पायो।
सबको अपना बन्दु बनाओ
करो क्रोध किसी पर भूल।
दुःख करो सबके निर्मूल।।
दो सबको सुख-सुविदा दान
तुम भी पायो शान्ति महान।।
सम्राट् समुद्रगुप्त
जब चन्द्रगुप्त सन् 399 ई० में साकेत की गद्दी पर बैठे, साकेत बहुत छोटा
राज्य था। लेकिन चन्द्रगुप्त ने अपने प्रताप से उसे प्रयाग तक बढ़ा लिया।
उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र समुद्रगुप्त 335 ई० सिंहासन पर बैठे। इतना
प्रतापशाली नरेश किसी भी देश में शताब्दियों में कोई होता है। यूरोप के जो
विख्यात विजयी वीर कहे जाते हैं, वे भी तुलना करने पर समुद्र गुप्त के
पराक्रम की कोटि में नहीं आते।
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