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गीता प्रेस, गोरखपुर >> सत्संग के बिखरे मोती

सत्संग के बिखरे मोती

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 878
आईएसबीएन :81-293-0222-5

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प्रस्तुत पुस्तक में सत्संग की महिमा का वर्णन किया गया है।

Satsang Ke Bikhare Moti a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - सत्संग के बिखरे मोती - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीहरि:।।

नम्र निवेदन

श्री भाईजी (हुमानप्रसाद पोद्दार) के दैनिक सत्संग से जो नोट स्वान्त:सुखाय समय-समय पर लिखे जाते रहे हैं, उन्हीं को पिछले कई वर्षों से ‘कल्याण’ में ‘सत्संग वाटिका के बिखरे सुमन’ शीर्षक से छापा जाता रहा है। कई प्रेमी जनों के आग्रह से उन्हीं को संगृहीत कर तथा जहाँ तक संभव था, क्रमबद्धकर कुछ नाम परिवर्तन के साथ पुस्तकाकार में प्रस्तुत किया जा रहा है। उक्त संग्रह का यह पहला भाग है। इसमें ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, सदाचार, सन्त-महिमा, भगवत्प्रेम आदि के विविध विषयों का समावेश है, जिससे साधकों के लिये यह विशेष काम की चीज बन गयी है।

सत्संग की महिमा शास्त्रों में भरी पड़ी है। गुसाईंजी के शब्दों में वही फल और वही सिद्धि है, अन्य साधन तो सब फूल के समान हैं-

सतसंगति मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।

एक विशुद्ध हृदय के विशुद्ध उद्गारों से जनता का परम मंगल होगा, इसी भाव से प्रेरित होकर यह संग्रह प्रकाशित् किया जा रहा है। यदि इससे कुछ भी लोक-कल्याण हुआ तो संग्रहकर्ता अपने प्रयास को सफल समझेगा।

एक सत्संगी’


ऊँ श्रीहरि:

सत्संग के बिखरे मोती
प्रथम माला



1.    जिस प्रकार अग्नि में दाहिकाशक्ति स्वाभाविक है, उसी प्रकार भगवन्नाम में पाप को- विषय-प्रपंचमय जगत् के मोहको जला डालने की शक्ति स्वाभाविक है- विषय भाव की आवश्यकता नहीं है।
2.    किसी भी प्रकार नाम जीभ पर आना चाहिये, फिर नाम का जो स्वाभाविक फल है, वह बिना श्रद्धा के भी मिल ही जायगा।
3.    तर्कशील बुद्धि भ्रान्त धारणा करवा देती है कि बिना भाव के क्या लाभ होगा। पर समझ लो, ऐसा सोचना अपने हाथों अपने गले पर छुरी चलाना है।
4.    भाव हो या नहीं, हमें आवश्यकता है नाम लेने की। नाम की आवश्यकता है, भाव की नहीं।
5.    भाव हो तो बहुत ठीक, परन्तु हमें भाव की ओर दृष्टि नहीं डालनी है। भाव न हो, तब भी नाम-जप तो करना ही है।
6.    देखो- नाम भगवत्स्वरूप ही है। नाम अपनी शक्ति से, नाम अपने वस्तुगुण से सारा काम कर देगा। विशेषकर कलियुग में तो भगवन्नाम के सिवा और कोई साधन ही नहीं है।
7.    मनोनिग्रह बड़ा कठिन है- चित्त की शान्ति के लिये प्रयास करना बड़ा ही कठिन है। पर भगवन्नाम तो इसके लिये भी सहज साधन है। बस, भगवन्नाम की जोर से ध्वनि करो।
8.    माता देवहूति कहती हैं-


अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेपुस्पस्ते जुहुवु: सस्नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते।।


(श्रीमद्भा.3/33/7)


बस, जिसने भगवन्नाम ले लिया, उस श्वपचने भी सब कर लिया। भाव की इसमें अपेक्षा नहीं है। वस्तुगुण काम करता है।
9.    तर्क भ्रान्ति लाती है कि रोटी-रोटी करने से पेट थोड़े ही भरता है ? पर विश्वास करो, भगवन्नाम रोटी की तरह जड़ शब्द नहीं है। यह शब्द ही ब्रह्म है। नाम और नामी में कोई अन्तर ही नहीं है।
10.    आलस्य और तर्क- यो दो नाम जप में बाधक हैं।
11.    प्राय: आलस्य के कारण ही कह बैठते हो कि नाम-जप होता नहीं।
12.    अभ्यास बना लो, नाम लेने की आदत डाल लो।
13.    ‘नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं’ इस पर श्रद्धा करो। इस विश्वास को दृढ़ करो।
14.    कंजूस की भाँति नाम को सँभालो।
15.    निश्चय समझो- नाम के बल से बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाओगे और भगवान् के प्रेम को भी प्राप्त कर लोगे।
16.    भगवान् नित्य हमारे पास हैं; अत्यन्त समीप हैं। एकान्त कोठरी में जहाँ कोई भी घुस नहीं सकता, वहाँ भी साथ हैं। ऐसे भगवान् आश्रय लेते ही आश्रय दे देते हैं।
17.    भगवान् के बल से सभी कुछ सम्भव है, सभी विपत्तियाँ हट सकती हैं। सारी लंका जल गयी, पर हनुमानजी की पूँछ नहीं जली; क्योंकि सीता मैया ने पूँछ नहीं जलने का संकल्प जो कर लिया था। हनुमानजी को गरमी तक का अनुभव नहीं हुआ।
18.    आधुनिक जगत् के, बहुत-से लोग कहेंगे, यह बनावटी बात है। पर निश्चय मानो, भगवान् का आश्रय होने पर पूँछ में आग लगकर भी पूँछ न जले, यह सर्वथा सम्भव है। अवश्य ही सच्चा भक्त अपनी ओर से इस प्रकार के चमत्कार की इच्छा नहीं रखता। हम लोग तो मामूली अनिष्ट के भी टल जाने की चाह कर बैठते हैं।
19.    निरन्तर भगवान् का नाम लो, कीर्तन करो। मेरे विचार से सर्वोत्तम साधन यही है।

20.    ‘हारे को हरिनाम’- इसी उपाय से सबका मंगल दीखता है। और किसी भी उपाय में राग-द्वेष उत्पन्न होकर फँस जाने का भय है।
21.    भगवान् पर विश्वास हो, उनकी कृपा का भरोसा हो और नाम-जप होता रहे तो अपने-आप ही निर्भयता आयेगी, साहस आयेगा। विपत्ति का टलना भी इसी उपाय से होगा।
22.    मनुष्य जब सब उपायों से हार जाता है तब उसे हरिनाम सूझता है, तभी वह हरिनाम को पकड़ता है और तभी उसे विजय मिलती है।

23.    भगवान् का आश्रय ग्रहण करो, भगवान् की कृपा पर विश्वास करो, जिससे मन में अशान्ति नहीं रहे।
24.    हमें क्या चाहिये, इस बात को हम भूले हुए हैं।
25.    हम अज्ञान वश ऐसी चीज की प्राप्ति की इच्छा कर बैठते हैं, जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है और जिसमें हमारा अकल्याण है।
26.    किस चीज की प्राप्ति में हमारा भला है, इस बात को ठीक-ठीक भगवान् जानते हैं।
27.    हमें क्या चाहिये, हम ठीक-ठीक नहीं जानते; चाहने में भूल कर बैठते हैं। बहुत बार तो ऐसी वस्तु की चाह बैठते हैं, जिसकी प्राप्ति महान् दु:खदायिनी होती है। इसलिये हमें क्या करना चाहिये, यह विचार भगवान् पर छोड़ देना चाहिये। इस बात को सोचे भगवान्, उस वस्तु का संग्रह करे भगवान् हमारे लिए जो उचित समझेंगे देंगे और इस उपाय से हमको अविनाशी पद बिना ही परिश्रम प्राप्त हो जायगा।
28.    भगवान् ने कहा है- ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ योग (अप्राप्त की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त का रक्षण) दोनों स्वयं मेरे जिम्मे रहें- यह भगवान् की प्रतिज्ञा है। इससे बड़ा आश्वासन और क्या हो सकता है।
29.    भगवान् के ऊपर योगक्षेम का भार छोड़ देने में ही परम लाभ है।
30.    भगवत् प्राप्ति का बड़ा सीधा रास्ता है- ‘हमारे एकमात्र आधार भगवान् हैं; हममें बुद्धि, शक्ति कुछ भी नहीं है, हम उन्हीं पर निर्भर हैं- वे जो चाहें करें।’ ऐसा हृदय से भाव कर लेना।
31.    समस्त शक्तियों का स्रोत्र भगवान् से ही आरम्भ होता है।
32.    हमारी कितनी भारी भूल है, कितना बड़ा प्रमाद है कि हम भगवान् के विचार के सामने अपना विचार रखते हैं, मानों भगवान् विचार करना भी नहीं जानते।
33.    जो भगवान् की दया के सीधे प्रवाह को रोकना चाहता है, वह भारी भूल करता है।
34.    भगवान् जब, जो, जैसे करें, वैसे ही होने दो, उसी में तुम्हारा परम कल्याण है।


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