भाषा एवं साहित्य >> साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों में राजनीतिक चेतना साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों में राजनीतिक चेतनापुष्पेन्द्र दुबे
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आज की राजनीति व्यवसाय में परिणत हो चुकी है । एक तरह से नेता और पूंजीपति इसमें शेयर बाजार की तरह रुपया निवेश करते हैं और विजयी होने पर उसका लाभांश मूल सहित अर्जित करते हैं
आज़ादी के बाद एक दौर ऐसा आया था, जब अभिक्रम नेताओं के हाथ से निकलकर जनता के हाथ में आने वाला था, लेकिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने देश में प्रतिक्रांति कर दी, परिणामस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाना पड़ा। आज़ादी के बाद अहिंसक क्रांति के लिए जो ज़मीन संत विनोबा ने तैयार की थी, उसे संपूर्ण क्रांति की भ्रांति ने तोड़ दिया। राजनीति ने संत विनोबा को ‘सरकारी संत’ की उपाधि दी और राही मासूम रजा ने ‘कटरा बी आरजू’ उपन्यास में लिखा कि आपातकाल यदि काली अंधेरी रात था तो उस रात के बाद कभी सवेरा नहीं हुआ।’ स्थितियां इतनी बिगड़ती चली गई कि श्रवण कुमार गोस्वामी को ‘लोकतंत्र’ की तुलना जंगल तंत्र से करनी पड़ी और उन्होंने उपन्यास लिखा ‘जंगलतंत्रम’।
प्रस्तुत पुस्तक में अमृतलाल नागर के ‘अमृत और विष’ उपन्यास से लेकर कमलेश्वर के ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास तक फैली राजनीतिक चेतना का विश्लेषण किया गया है। यद्यपि यह प्रश्न हमेशा से विचारणीय रहा है कि साहित्य और राजनीति का सरोकार है अथवा नहीं, साहित्यकारों की राजनीतिक संबंध(ता को लेकर भी प्रश्न उठाए जाते रहे हैं । चिंतनशील साहित्यकारों ने नपे-तुले शब्दों में अपने वैचारिक दृष्टिकोण को कई बार स्पष्ट किया है। राजनीतिक परिस्थितियों के विश्लेषण में तो उपन्यासकारों को सफलता मिली है, परंतु उनसे निजात पाने का उपाय उनके पास भी नहीं है। अभी तक राजनीतिक संकट, मूल्यों के पतन, सामाजिक विघटन आदि का शोर होता रहा है। यदि मनुष्य को मनुष्य बने रहना है तो पूरी की पूरी समाज रचना और व्यवस्था को अहिंसक पद्धति से बदले बिना समस्याओं से छुटकारा पाने का रास्ता नहीं बचा है।
असम के संत माधवदेव ने ‘राजनीति राक्षसेर शास्त्र’ अर्थात् राजनीति को राक्षसों का शास्त्र बताया है । आज की परिस्थितियों में यही शास्त्र व्यवहार में उतर गया है । परिवर्तन के लिए पूरा देश आकुल-व्याकुल दिखाई दे रहा है । परिवर्तन के लिए साधन कौन से अपनाये जायें, यह प्रश्न देश के सामने मुंह बाए खड़ा है । व्यक्तिगत जीवन में अहिंसा का पालन करने वाले लोगों ने सामाजिक जीवन के लिए हिंसा को मान्य किया है । इस हिंसा-अहिंसा की दुविधा में फंसा व्यक्ति जीवन मुक्ति के लिए छटपटा रहा है । ‘वोट की राजनीति’ हिंसक विस्फोट को रोकने में ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम कर रही है, लेकिन कब तक ?
प्रस्तुत पुस्तक में इन्हीं सब मुद्दों पर विचार किया गया है । इस विषय के चयन में विनोबा भावे के दो वचनों ने प्रेरणा दी ‘इलेक्शनं विलक्षणं’ और ‘यत्र यत्र इलेक्शनं तत्र कार्य न विद्यते’। राजनीति किसी का स्वधर्म नहीं हो सकती, बल्कि हमेशा कहा जाता है- ‘राजनीति में पड़ना’ । ‘पड़ना’ शब्द मराठी भाषा में ‘गिरने’ से संबंधित है । राजनीति में गिरने वाला ही सत्ता में ऊंचे शिखर का स्पर्श कर पाता है । साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों में उपन्यासकारों ने राजनीति की इसी गिरावट का चित्रण किया है।
प्रस्तुत पुस्तक में अमृतलाल नागर के ‘अमृत और विष’ उपन्यास से लेकर कमलेश्वर के ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास तक फैली राजनीतिक चेतना का विश्लेषण किया गया है। यद्यपि यह प्रश्न हमेशा से विचारणीय रहा है कि साहित्य और राजनीति का सरोकार है अथवा नहीं, साहित्यकारों की राजनीतिक संबंध(ता को लेकर भी प्रश्न उठाए जाते रहे हैं । चिंतनशील साहित्यकारों ने नपे-तुले शब्दों में अपने वैचारिक दृष्टिकोण को कई बार स्पष्ट किया है। राजनीतिक परिस्थितियों के विश्लेषण में तो उपन्यासकारों को सफलता मिली है, परंतु उनसे निजात पाने का उपाय उनके पास भी नहीं है। अभी तक राजनीतिक संकट, मूल्यों के पतन, सामाजिक विघटन आदि का शोर होता रहा है। यदि मनुष्य को मनुष्य बने रहना है तो पूरी की पूरी समाज रचना और व्यवस्था को अहिंसक पद्धति से बदले बिना समस्याओं से छुटकारा पाने का रास्ता नहीं बचा है।
असम के संत माधवदेव ने ‘राजनीति राक्षसेर शास्त्र’ अर्थात् राजनीति को राक्षसों का शास्त्र बताया है । आज की परिस्थितियों में यही शास्त्र व्यवहार में उतर गया है । परिवर्तन के लिए पूरा देश आकुल-व्याकुल दिखाई दे रहा है । परिवर्तन के लिए साधन कौन से अपनाये जायें, यह प्रश्न देश के सामने मुंह बाए खड़ा है । व्यक्तिगत जीवन में अहिंसा का पालन करने वाले लोगों ने सामाजिक जीवन के लिए हिंसा को मान्य किया है । इस हिंसा-अहिंसा की दुविधा में फंसा व्यक्ति जीवन मुक्ति के लिए छटपटा रहा है । ‘वोट की राजनीति’ हिंसक विस्फोट को रोकने में ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम कर रही है, लेकिन कब तक ?
प्रस्तुत पुस्तक में इन्हीं सब मुद्दों पर विचार किया गया है । इस विषय के चयन में विनोबा भावे के दो वचनों ने प्रेरणा दी ‘इलेक्शनं विलक्षणं’ और ‘यत्र यत्र इलेक्शनं तत्र कार्य न विद्यते’। राजनीति किसी का स्वधर्म नहीं हो सकती, बल्कि हमेशा कहा जाता है- ‘राजनीति में पड़ना’ । ‘पड़ना’ शब्द मराठी भाषा में ‘गिरने’ से संबंधित है । राजनीति में गिरने वाला ही सत्ता में ऊंचे शिखर का स्पर्श कर पाता है । साठोत्तरी हिन्दी उपन्यासों में उपन्यासकारों ने राजनीति की इसी गिरावट का चित्रण किया है।
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