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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक

भक्त बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 882
आईएसबीएन :81-293-0517-8

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भगवान् की महिमा का वर्णन...

ब्राह्मण-मण्डली बालकको स्नेहार्द्र-हृदयसे आशीर्वाद देकर लौट गयी। अन्तमें गुरुदेवने अपने सब छात्रोंको साथ लेकर भोजन किया। मोहनको भी आज वहीं भोजन करना पड़ा। संध्या हो गयी और सब लड़के अपने-अपने घर चले गये। गुरुदेवने गोपालभाईके प्यारे मोहनको रख लिया था। सबके जानेके बाद उससे बोले, ‘बेटा! मैं तेरे साथ चलता हूँ, तेरे गोपालभाईके दर्शन मुझे भी जरूर कराने पड़ेंगे।' मोहनने कहा, 'चलिये, अभी मेरे साथ वनमें। मेरा गोपालभाई तो पुकारते ही आता है।' गुरुने बालकको गोदमें उठा लिया और दोनों वनमें पहुँचे। बालकने वहाँ जाते ही पुकारा, ‘गोपालभाई! आओ, आज इतनी देर क्यों करते हो?' बदलेमें उसे सुनायी दिया, 'आज तो तुम अकेले नहीं हो, फिर मुझे क्यों बुलाते हो?' मोहनने कहा, ‘भाई! मेरे गुरुजी तुम्हें देखना चाहते हैं, जल्दी आओ।' भक्तकी प्रेमभरी पुकार सुनकर भगवान् नहीं ठहर सकते। तुरंत नव-नील-नीरद श्यामसुन्दर प्रकट हो गये। बालकने कहा, ‘भाई आ गये। गुरुदेव! देखो तो गोपालभाई कितना सुन्दर है!' गुरुजीको एक विस्मयजनक प्रकाशके सिवा और कुछ भी नहीं दिखायी दिया, उन्होंने कहा, 'कहाँ है? मुझे तो इस उजियालेके सिवा और कुछ भी नहीं दीखता।' बालकने कहा, 'यह क्या बात है? गोपालभाई! तुम यह क्या खेल कर रहे हो?' उत्तर मिला, ‘भाई! मैं तुम्हारे पास आता हूँ, तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध है, उसमें प्रेम भरा है, तुम्हारा साधन-समय पूर्ण हो गया है, परंतु तुम्हारे गुरुदेव अभी दर्शनके अधिकारी नहीं हुए। इन्होंने जो प्रकाश देखा है, वही इनके लिये बहुत है। इसीसे यह कल्याण-मार्गपर अग्रसर हो सकते हैं। यह वीणा-विनिन्दित वाणी गुरुदेवने भी सुनी। उनके हृदयका रुद्ध द्वार खुल गया, हृदयकी मायाका बाँध टूट गया, प्रेमका सागर उमड़ पड़ा। गुरुदेव गद्गद होकर बोले, ‘नाथ! तुम्हारे दिव्य प्रकाशने मेरे हृदयके घोर अन्धकारको हर लिया और तुम्हारी वाणीने मुझे तुम्हारे दिव्य धामके दर्शन करा दिये। अब मैं हृदयमें तुम्हें देख रहा हूँ। प्रभो! मैं यही चाहता हूँ कि मेरी सदा यही दशा बनी रहे।' मोहन महान् आनन्दसे छका मुसकरा रहा था।

थोड़ी देरमें गुरुदेवपर भी कृपा हुई। करुणावरुणालय, सौन्दर्यकी राशि, प्रेमके भण्डार, उदारचूडामणि, अनूप रूपशिरोमणिके प्रत्यक्ष दर्शन कर गुरु महाराज सदाके लिये कृतकृत्य हो गये।

मोहनको साथ लेकर गुरुदेव ब्राह्मणीके पास आये। देखते हैं तो वहाँ ‘गोपालभाई’ माताकी गोदमें बैठे मानो जननीकी स्नेहसुधाका पान कर रहे हैं। माताको बाह्य ज्ञान नहीं है। उसके आनन्दाश्रुओंकी अजस्र धारासे गोपालभाईका समस्त शरीर अभिषिक्त हो गया है। गुरु और शिष्य इस दृश्यको देखकर आनन्दसागरमें डूब गये!*

बोलो भक्तिमती ब्राह्मणी, पवित्र भक्त मोहन और उसके प्यारे ‘गोपालभाई' की जय!


* स्वामी श्रीविवेकानन्दजीने लड़कपनमें अपनी धायसे एक कथा सुनी थी। स्वामीजीके शिष्य एम० सी० फैङ्की महोदय लिखते हैं कि इस कथाका उनके जीवनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। उसी कथाके आधारपर यह गाथा लिखी गयी है।

- लेखक

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    अनुक्रम

  1. गोविन्द
  2. मोहन
  3. धन्ना जाट
  4. चन्द्रहास
  5. सुधन्वा

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