गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त पंचरत्न भक्त पंचरत्नहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत पुस्तक में भगवान के पाँचों रत्नों का वर्णन है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
यह ‘संक्षिप्त भक्त चरित-माला’ का तीसरा पुष्प है।
इसमें
प्रकाशित पाँचों आख्यायिकाएँ गुजराती की
‘भक्त-चरित्र’ नामक
पुस्तक के अधार पर लिखी गयी हैं। इसे कई जगह शिक्षा- विभाग ने पढ़ाई के
लिये स्वीकार किया है तथा कुछ ही वर्षों में इसकी लाखों प्रतियाँ छप गईं।
इससे मालूम होता है कि यह लोगों को अच्छी लगी है और इससे लाभ हुआ है।
-प्रकाशक
भक्त-पञ्चरत्न
भक्त रघुनाथ
कृष्णचन्द्र महापात्र बहुत बड़े धनी जमींदार थे। हाथी -घोड़े
दास-
दासियों की उनके यहाँ कोई कमी नहीं थी। अतिथि-अभ्यागतों की आनन्द-ध्वनि से
उनका आतिथ्य भवन सदा भरा रहता था। उनकी आदर्श पत्नी कमला बड़ी ही उदार और
पतिव्रता थी। कमला वास्तव में कमला-सदृश ही गुण- सौन्दर्य से सम्पन्न थी ।
ईश्वर कृपा से उसके रघुनाथ नामक सद्गुणी एक कुमार था। रघुनाथ का स्वभाव
ल़ड़कपन से ही बड़ा सुशील और नम्र था, व सबसे मीठा बोलता था, उसके व्यवहार
से सभी लोग संतुष्ट थे। रघुनाथ बार-बार मन्दिर जाकर भगवती की मूर्ति के
सामने प्रणाम करता कीर्तन करता, स्तुति करता और प्रदक्षिणा करता।
सतरह वर्ष की उम्र होने पर माता-पिता ने उसका विवाह कलावतीपुर के गंगाधर नामक धनी-मानी पुरुष की अन्नपूर्णा नामी कन्या से कर दिया। अन्नपूर्णा सात भाइयों में सबसे छोटी एक ही बहिन थी, इससे घर में सभी उसका विशेष आदर किया करते थे। इसलिये विवाह बड़ी धूमधाम से किया गया।
सुलक्षणा बहू को पाकर कमला के कलेजे की कलियां खिल उठीं। वह मानो स्वर्ग सुख का अनुभव करने लगी। इस समय कमला सातों प्रकार के सुखों से सुखी थी; परंतु विधाता का विधान कुछ और ही था। कुछ वर्षों तक लगातार अकाल पड़ा। कृष्णचन्द्र बड़े दयालु थे, उन्होंने लगान वसूल करना तो छोड़ ही दिया, पर अपने पास जो था, वह भी भूखे किसानों की सेवा में लगा दिया। घर खाली हो गया। मनुष्य इज्जत-आबरु के लिये एक बार जो खर्च लगाना आरम्भ कर देता है, बुरी स्थिति में उससे कम लगाने में उसे बड़ा संकोच होता है। इसी प्रकार कृष्णचन्द्र का खर्च ज्यों का त्यों लगता रहा, जमींदारी पर ऋण हो गया। लगातार की चिन्ताओं ने कृष्णचन्द्र के स्वास्थ्य को बड़ा धक्का पहुँचाया, वे बीमार हो गये और एक दिन अपने को मरणशय्या पर पड़े हुए समझ कर उन्होंने प्यारे पुत्र रघुनाथ को पास बुलाया और उसकी गोद में अपना मस्तक रखकर कातर स्वर में कहने लगे- मेरे लाल रघुनाथ मैं जाता हूँ, मेरी एक बात याद रखना। जहाँ तक हो सके मेरा ऋण चुकाना। देखना कभी किसी को धोखा देने की भावना मन में न जाग उठे। भगवान तुम्हारा कल्णाण करेंगे कृष्णचन्द्र ने इतना कहकर सदा के लिये आँखें मूंद लीं।’ पतिप्राण कमला पुत्र से विदा लेकर स्वामी के साथ सती हो गयी। रघुनाथ के सिर पर कठोर वज्रपात हुआ।
सतरह वर्ष की उम्र होने पर माता-पिता ने उसका विवाह कलावतीपुर के गंगाधर नामक धनी-मानी पुरुष की अन्नपूर्णा नामी कन्या से कर दिया। अन्नपूर्णा सात भाइयों में सबसे छोटी एक ही बहिन थी, इससे घर में सभी उसका विशेष आदर किया करते थे। इसलिये विवाह बड़ी धूमधाम से किया गया।
सुलक्षणा बहू को पाकर कमला के कलेजे की कलियां खिल उठीं। वह मानो स्वर्ग सुख का अनुभव करने लगी। इस समय कमला सातों प्रकार के सुखों से सुखी थी; परंतु विधाता का विधान कुछ और ही था। कुछ वर्षों तक लगातार अकाल पड़ा। कृष्णचन्द्र बड़े दयालु थे, उन्होंने लगान वसूल करना तो छोड़ ही दिया, पर अपने पास जो था, वह भी भूखे किसानों की सेवा में लगा दिया। घर खाली हो गया। मनुष्य इज्जत-आबरु के लिये एक बार जो खर्च लगाना आरम्भ कर देता है, बुरी स्थिति में उससे कम लगाने में उसे बड़ा संकोच होता है। इसी प्रकार कृष्णचन्द्र का खर्च ज्यों का त्यों लगता रहा, जमींदारी पर ऋण हो गया। लगातार की चिन्ताओं ने कृष्णचन्द्र के स्वास्थ्य को बड़ा धक्का पहुँचाया, वे बीमार हो गये और एक दिन अपने को मरणशय्या पर पड़े हुए समझ कर उन्होंने प्यारे पुत्र रघुनाथ को पास बुलाया और उसकी गोद में अपना मस्तक रखकर कातर स्वर में कहने लगे- मेरे लाल रघुनाथ मैं जाता हूँ, मेरी एक बात याद रखना। जहाँ तक हो सके मेरा ऋण चुकाना। देखना कभी किसी को धोखा देने की भावना मन में न जाग उठे। भगवान तुम्हारा कल्णाण करेंगे कृष्णचन्द्र ने इतना कहकर सदा के लिये आँखें मूंद लीं।’ पतिप्राण कमला पुत्र से विदा लेकर स्वामी के साथ सती हो गयी। रघुनाथ के सिर पर कठोर वज्रपात हुआ।
जाही विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।
अन्नपूर्णा बड़े घर की लड़की थी, वह प्रायः नैहर में ही रहती थी।
उसके पिता और भाईयों के पास धन बहुत था; पर वे बड़े ही कृपण थे। इससे उन्होंने रघुनाथ की बुरी हालत का समाचार सुनकर भी मानो कुछ नहीं सुना ! कंजूस का धन किस काम का ? जो धन के कीड़े होते हैं वे धन बटोरने और उसका रक्षण करने में ही लीन रहते हैं। अपने प्यारे पुत्र, कन्या और श्रद्धास्पद माता-पिता का दारुण दुःख भी पत्थर का कलेजा किये सह लेते हैं; परंतु उन्हें एक पैसा देना नहीं चाहते। रघुनाथ भी साधारण बालक नहीं था, वह तो उस सबसे बड़े पुरुष से परिचित था, जिसकी तुलना में इसके श्वसुर गंगाधर करण सूर्य के समान एक जुगनू भी नहीं थे। रघुनाथ मदद मांगने के लिये ससुराल नहीं गया उसके पास जो कुछ था, सो सब बेचकर उसने पिता का सारा कर्ज चुका दिया सुसराल से दहेज में जो कुछ मिला था, उससे देव-सेवा का नियमित प्रबन्ध कर वह एक फटा कन्था और कौपीन लेकर घर से निकल पड़ा।
भगवान की लीला है, एक वृक्ष में दो फूल खिल रहे थे। इतने में ही न मालूम जाने कहाँ से काल-कीटने आकर उसी की जड़ में बास कर लिया। हाय ! उसने इन्हें खिलने भी न दिया; ये थोड़ी-सी शोभा फैलाकर, तनिक-सी सुगन्ध वितरण कर सूखकर गिर पड़े। अब रघुनाथ ! तुम्हारे खिलने के दिन हैं; तुम खिलो, तुम भगवान के भक्त हो पद्मजातीय पुष्प हो; दुःख-दारिद्रय के प्रचण्ड सूर्यताप में ही तुम्हें खिलना होगा, तुम प्रस्फुटित होओ। तुम्हारे इस छिन्न-मलिन वस्त्र से ही शैवाल-समावृत पंकज की भाँति तुम्हारी शोभा सौगुनी बढ़ जाएगी-तुम्हारे भक्ति-सौरभ से विश्व-ब्रह्माणड भर जायगा। तुम्हारे खिलने के दिन आ गये हैं, खिलो रघुनाथ। तुम खिलो।
रघुनाथ गाँव-गाँव में भीख मांगकर जीवन निर्वाह करने लगा-बड़े घर का लड़का है, दुःख किसको कहते हैं, इस बात से भी वह अपरिचित था। पर आज उसके कष्ट की कोई सीमा नहीं है। एक दिन घोर रात्रि के समय वृक्ष के नीचे पड़े हुए रघुनाथ ने मन में सोचा-यों बिना कारण गाँव-गाँव भटकने में क्या लाभ है ? पशु की भाँति आहार–निद्रा के सेवन में ही कौन-सा फायदा है। अच्छा हो, किसी पुण्य क्षेत्र में जाकर भगवान् का नाम लेते हुए बिताया जाय।’ यह विचार कर रघुनाथ बड़ी श्रद्धा-भक्ति से नीलाचल (पुरी) चला गया। मन्दिरों में जाकर भगवान का दर्शन करने के बाद सरलता से हाथ जोड़कर वह कहने लगा-
‘हे प्रभो ! मेरे माता-पिता दोनों ही मर गये हैं- मुझे अनाथ बना गये हैं इसी से रघु आज ‘अरक्षित यानी रक्षकहीन’ हो रहा है। मन करता है तुम्हारे चरणों का आश्रय पकड़ लूँ, पर मेरी इच्छा से ही क्या होगा, तुम्हारी इच्छा ही तो इच्छा है अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो, पर यह जान रखो कि रघुनाथ तुम्हारा ही खरीदा हुआ गुलाम है।’ जहाँ सरल विश्वास से कातर हृदय की सच्ची पुकार होती है; वहीं उत्तर मिलता है; वही उत्तर मिलता है। रघुनाथ ने देखा मानो प्रभु करकमल उठाकर उससे कह रहे हैं- ‘रघु तुझे कोई भय नहीं है तू यहां महाप्रसाद भोजन करता हुआ आनन्द से विचरण कर, मैंने तुझे अपना सेवक बना लिया।’
उसके पिता और भाईयों के पास धन बहुत था; पर वे बड़े ही कृपण थे। इससे उन्होंने रघुनाथ की बुरी हालत का समाचार सुनकर भी मानो कुछ नहीं सुना ! कंजूस का धन किस काम का ? जो धन के कीड़े होते हैं वे धन बटोरने और उसका रक्षण करने में ही लीन रहते हैं। अपने प्यारे पुत्र, कन्या और श्रद्धास्पद माता-पिता का दारुण दुःख भी पत्थर का कलेजा किये सह लेते हैं; परंतु उन्हें एक पैसा देना नहीं चाहते। रघुनाथ भी साधारण बालक नहीं था, वह तो उस सबसे बड़े पुरुष से परिचित था, जिसकी तुलना में इसके श्वसुर गंगाधर करण सूर्य के समान एक जुगनू भी नहीं थे। रघुनाथ मदद मांगने के लिये ससुराल नहीं गया उसके पास जो कुछ था, सो सब बेचकर उसने पिता का सारा कर्ज चुका दिया सुसराल से दहेज में जो कुछ मिला था, उससे देव-सेवा का नियमित प्रबन्ध कर वह एक फटा कन्था और कौपीन लेकर घर से निकल पड़ा।
भगवान की लीला है, एक वृक्ष में दो फूल खिल रहे थे। इतने में ही न मालूम जाने कहाँ से काल-कीटने आकर उसी की जड़ में बास कर लिया। हाय ! उसने इन्हें खिलने भी न दिया; ये थोड़ी-सी शोभा फैलाकर, तनिक-सी सुगन्ध वितरण कर सूखकर गिर पड़े। अब रघुनाथ ! तुम्हारे खिलने के दिन हैं; तुम खिलो, तुम भगवान के भक्त हो पद्मजातीय पुष्प हो; दुःख-दारिद्रय के प्रचण्ड सूर्यताप में ही तुम्हें खिलना होगा, तुम प्रस्फुटित होओ। तुम्हारे इस छिन्न-मलिन वस्त्र से ही शैवाल-समावृत पंकज की भाँति तुम्हारी शोभा सौगुनी बढ़ जाएगी-तुम्हारे भक्ति-सौरभ से विश्व-ब्रह्माणड भर जायगा। तुम्हारे खिलने के दिन आ गये हैं, खिलो रघुनाथ। तुम खिलो।
रघुनाथ गाँव-गाँव में भीख मांगकर जीवन निर्वाह करने लगा-बड़े घर का लड़का है, दुःख किसको कहते हैं, इस बात से भी वह अपरिचित था। पर आज उसके कष्ट की कोई सीमा नहीं है। एक दिन घोर रात्रि के समय वृक्ष के नीचे पड़े हुए रघुनाथ ने मन में सोचा-यों बिना कारण गाँव-गाँव भटकने में क्या लाभ है ? पशु की भाँति आहार–निद्रा के सेवन में ही कौन-सा फायदा है। अच्छा हो, किसी पुण्य क्षेत्र में जाकर भगवान् का नाम लेते हुए बिताया जाय।’ यह विचार कर रघुनाथ बड़ी श्रद्धा-भक्ति से नीलाचल (पुरी) चला गया। मन्दिरों में जाकर भगवान का दर्शन करने के बाद सरलता से हाथ जोड़कर वह कहने लगा-
‘हे प्रभो ! मेरे माता-पिता दोनों ही मर गये हैं- मुझे अनाथ बना गये हैं इसी से रघु आज ‘अरक्षित यानी रक्षकहीन’ हो रहा है। मन करता है तुम्हारे चरणों का आश्रय पकड़ लूँ, पर मेरी इच्छा से ही क्या होगा, तुम्हारी इच्छा ही तो इच्छा है अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो, पर यह जान रखो कि रघुनाथ तुम्हारा ही खरीदा हुआ गुलाम है।’ जहाँ सरल विश्वास से कातर हृदय की सच्ची पुकार होती है; वहीं उत्तर मिलता है; वही उत्तर मिलता है। रघुनाथ ने देखा मानो प्रभु करकमल उठाकर उससे कह रहे हैं- ‘रघु तुझे कोई भय नहीं है तू यहां महाप्रसाद भोजन करता हुआ आनन्द से विचरण कर, मैंने तुझे अपना सेवक बना लिया।’
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