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गीता प्रेस, गोरखपुर >> बालकों की बातें

बालकों की बातें

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 885
आईएसबीएन :81-293-0417-1

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प्रस्तुत है छोटे बालकों की बातें...

Balkon Ki Batein a hindi book by Gitapress - बालकों की बातें - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

यह पुस्तिका गुजरात के प्रसिद्ध भक्त-लेखक स्व. अमृतलाल सुलन्दरजी पढियारकी ‘बालकोनी बातो’ का अनुवाद है। अनुवाद में मूल पुस्तक का कुछ भाग कहीं-कहीं छोड़ दिया गया है, कहीं दो-चार पंक्तियाँ बढ़ायी भी गयी हैं। मूल पुस्तक श्रीभिक्षु अखण्डानन्दजी के द्वारा स्थापित ‘सस्तुं साहित्यवर्धक कार्यालय’ अहमदाबाद से प्रकाशित हुई थी। स्वर्गीय स्वामी अखण्डनन्दजी के साथ हमारा बड़ा स्नेहसम्बन्ध था। अतएव उन्होंने गीताप्रसे की सभी पुस्तकें यथेच्छ अनुवाद करके प्रकाशित करने की अनुमति हमसे ले ली थी, तदनुसार उन्होंने कई गन्थों का अनुवाद प्रकाशित किया था और हमपर कृपा करके उन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थ के अनुवाद को प्रकाशित करने की हमें अनुमति दे दी थी। इसके लिये हम उनके आभारी हैं; परंतु अभीतक गीताप्रेस की ओर से ‘सस्तुं साहित्यवर्धक कार्यालय’ की किसी पुस्तक का अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ था। यही पहली पुस्तक है।

गीताप्रेसद्वारा ‘बालसाहित्य’ प्रकाशनकी भी यही पहली  पुस्तक है। इसमें बातचीत के रूप में बहुत ही उत्तम उपदेश दिया गया है। आशा है, हमारी शिक्षासंस्थाओं और अभिभावकों के द्वारा इस पुस्तक का आदर होगा तथा हमारे बालकों के लिये यह बहुत लाभकारी सिद्ध होगी।
-प्रकाशक

ईस-प्रार्थना


हे भगवान् हे भगवान्। हम सब बालक हैं अज्ञान।।
तुम हो माता-पिता हमारे। हर लो सबके पातक सारे।।
करें सभी से सदा प्रेम हम। हरें सभी का दुःख-दोष हम।।
सबका भला सदा ही चाहें। दूर करें दुखियों की आहें।।
माता-पिता-गुरु आज्ञा मानें। उनको परमेश्वर सम जानें।।
सेवा करें सदा तन-मनसे। धनसे, जीवनसे, यौवनसे।।
गुस्से को आते ही मारें। क्षमा, नम्रता मनमें धारें।।
करें किसी से नहीं लड़ाई। करें किसी की नहीं बुराई।।
नहीं किसी को गाली देवें। कोई दे तो हम सह लेवों।।
मारें पीटें नहीं किसी को। कभी सतावें नहीं किसी को।।
झूठ न बोलें, चीज न लेवें। सदा सत्यको मनसे सेवें।।
राम-नामका जप करें नित। रामायणका पाठ करें नित।।
गीताजी के श्लोक पढ़ें नित। गुरुओं के हम चरण पड़ें नित।।
पढ़ें पढ़ावें खेलें खावें। ईश-कृपासे मौज उड़ावें।।
दो प्रभु हमको यह वरदान। हे भगवान हे भगवान्।।


बालकों की बातें



गली में कुछ लड़के खेल रहे थे। वहां जाकर बुद्धिनाथ नामके एक लड़के ने कहा—
मणिशंकर ! यहाँ तो आओ, यह पोथी बड़े मजे की है।
यह सुनकर मणिशकंर ने कहा—‘पोथी मजेकी है तो इससे हमें क्या ? हम इसमें क्या समझेंगे ?
बुद्धिनाथ बोला -‘इस पोथी में ऐसी बातें हैं, जो हम समझ सकते हैं; इसीलिये तो मैंने तुमको बुलाया है। देखो न, यह पहला ही पाठ ‘खेलने के बारे में’ है, जरा सुनो तो सही।’

यों कहकर बुद्धिनाथ पाठ बाँचने लगा।


1-    खेल-कूद



हमें क्या खेलना चाहिये ?



यह सुनकर मगन हँस पड़ा और बोला—‘इसमें फिर कारण क्या ? हमको खेलने का मन होता है। इसीलिए हमें खेलना चाहिये।’

मोहन ने कहा—‘खेलने का मन होता है, यह बात ठीक है, पर क्यों खेलने का मन होता है ? इसका भी कुछ कारण तो होना चाहिये।’
यह सुनकर मगन ने पूछा—‘तब बतला दो, इसका कारण क्या है ?’
मोहन ने कहा—‘इसके बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं, पर यह पाठ बाँचकर देखो तो मालूम हो जायेगा।’


बालकों को प्रतिदिन खेलना ही चाहिये



इसके बाद बुद्धिनाथ पाठ बाँचने लगा। उसमें लिखा था—अपने गाँव में जो अच्छे खेल चलते हों, वे खेल लड़कों को जरूर खेलने चाहिये; क्योंकि खेलने से शरीर में बल आता है। खेलने से खाया हुआ पच जाता है, खेलने से मन प्रसन्न रहता है। खेलने से नये-नये भाई-बन्धु मिलते हैं, खेलने से हाथ, पैर, आँख, कान आदि की चतुराई बढ़ती है, खेलने से बातचीत करनी आती है, खेलने से हिम्मत बढ़ती है और खेलने से मजे की नींद आती है। खेलने का शौक होने से झगड़े कम हो जाते हैं, खेलने से कई तरह के रोग मिट जाते हैं, खेल से मान भी प्राप्त किया जा सकता है, खेलके आनन्द से पढ़ने की थकावट मिट जाती है और खेल-कूद से ही बालक जल्दी बड़े हो सकते हैं। इसलिये बालकों को हर रोज खेलना ही चाहिये।


हमें किस रीति से खेलना चाहिये ?



यह सुनकर मगन बोल उठा—‘वाह रे वाह ! यह पोथी तो बहुत ही मजे की है। खेलने की बात तो मुझे अच्छी लगी, अब तो हम रोज खूब खेलेंगे।’

‘मेरी माँ खेलने न देगी तो मैं यह पोथी उसको बँचा दूँगा। कहो कैसा मजा है।’ यों कहकर वह कामेश्वर के हाथ पर ताली बजाकर नाचते-कूदने लगा।
 यह सुनकर गेंद उछालते हुए हरिनारायण ने कहा—‘खेलने में ही मानिकलाल का पैर टूटा था, इसकी खबर है ?’
बुद्धिनाथ बोला—पूरा पाठ सुनने से पहले ही क्यों गड़बड़ मचाते हो ?
कैसा खेल खेलना चाहिये, यह तो जरा सुन लो।’



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