उपासना एवं आरती >> स्तोत्ररत्नावली स्तोत्ररत्नावलीगीताप्रेस
|
8 पाठकों को प्रिय 388 पाठक हैं |
प्रस्तुत है देवताओं की स्तुति संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
निवेदन
महाकवि कालिदास के ‘स्तोत्रं कस्य न तुष्टये’ इस वचन
के
अनुसार विश्व में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो स्तुति से प्रसन्न न हो
जाता हो। राजनीति के ग्रन्थों में कहा गया है कि
‘साम’ या
स्तुति के द्वारा राक्षस आदि भयंकर सत्त्व भी वशीभूत हो जाते हैं। इसीलिये
दण्ड, भेद, दान आदि नीतियों में ‘साम’ या
स्तुति-प्रशंसा को
ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अतएव वेदों से लेकर इतिहास, पुराण एवं
काव्यों तक में सर्वत्र सूक्त एवं स्रोत्र भरे पड़े है, जिनका संग्रह एक
महासमुद्र के समान होगा। प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल गणेश, शिव, शक्ति,
विष्णु, राम, कृष्ण एवं सूर्य आदि प्रमुख देवताओं के प्रसिद्ध स्तोत्रों
का संग्रह किया गया है। अन्त में प्रकीर्ण स्तोत्रों में देवताओं के
प्रात:स्मरण तथा कुछ ज्ञानप्रद आध्यात्मिक स्तोत्र भी दिये गये हैं। इस
उनतीसवें संस्करण में अकालमृत्यु-रोगादि से रक्षा करनेवाला परम उपयोगी एवं
अनुभूत मृत्युंजय-स्तोत्र भी संलग्र कर दिया गया है। इन स्रोत्रों के
द्वारा अराधना किये जाने पर भी सभी देवता प्रसन्न होकर उपासक का परम
कल्याण करते हैं। आशा हैं, पाठक-पाठिकाएँ इससे लाभ उठाने का प्रयास करेंगे।
प्रकाशक
ऊँ
सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:
सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:
स्त्रोतरत्नावली
विनयस्तोत्राणि
1-मंगलम्
स जयति सिन्धुरवदनो देवो
यत्पादपंकजस्मरणम्।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम्।।1।।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्नाशो विनायक:।।2।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:।
द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि।।3।।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।4।।
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये।।5।।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम्।।1।।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्नाशो विनायक:।।2।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:।
द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि।।3।।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।4।।
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये।।5।।
-------------------------------------------------
उन गजवदन देव देव की जय हो, जिनके चरणकमल का स्मरण सम्पूर्ण विघ्नसमूह को इस प्रकार नष्ट कर देता है जैसे सूर्य अन्धकारराशि को।। 1 ।।
जो पुरुष विद्यारम्भ, विवाह, गृहप्रवेश, निर्गमन (घर से बाहर जाने), संग्राम अथवा संकट समय सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्ण, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशन, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन- इन बारह नामों का पाठ या श्रवण भी करता हैं, उसे किसी प्रकार का विघ्न नहीं होता।।2-4।। जो श्वेत वस्त्र धारण किये हैं, चन्द्रमा के समान जिनका वर्ण
उन गजवदन देव देव की जय हो, जिनके चरणकमल का स्मरण सम्पूर्ण विघ्नसमूह को इस प्रकार नष्ट कर देता है जैसे सूर्य अन्धकारराशि को।। 1 ।।
जो पुरुष विद्यारम्भ, विवाह, गृहप्रवेश, निर्गमन (घर से बाहर जाने), संग्राम अथवा संकट समय सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्ण, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशन, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन- इन बारह नामों का पाठ या श्रवण भी करता हैं, उसे किसी प्रकार का विघ्न नहीं होता।।2-4।। जो श्वेत वस्त्र धारण किये हैं, चन्द्रमा के समान जिनका वर्ण
व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्ते: पौत्रमकल्मषम्।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम्।।6।।
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।।6।।
अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुरपरो हरि:।
अभाललोचन: शम्भुर्भगवान् बादरायण:।। 8 ।।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम्।।6।।
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।।6।।
अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुरपरो हरि:।
अभाललोचन: शम्भुर्भगवान् बादरायण:।। 8 ।।
इति मंगलं सम्पूर्णम्।
2-श्रीविष्णोरष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्
अर्जुन उवाच
किं नु नाम सहस्राणि जपते च पुन: पुन:।
यानि नामानि दिव्यानि तानि चाचक्ष्व केशव।। 1 ।।
यानि नामानि दिव्यानि तानि चाचक्ष्व केशव।। 1 ।।
------------------------------------------
है तथा जो प्रसन्नवदन हैं, उन देवदेव चतुर्भुज भगवान् विष्णु का विघ्नों की निवृत्ति के लिये ध्यान करना चाहिये ।। 5 ।। जो वसिष्ठजी के नाती (प्रपौत्र), शक्ति के पौत्र, पराशरजी के पुत्र तथा शुकदेवजी के पिता हैं, उन निष्पाप, तपोनिधि, व्यासजी की मैं वन्दना करता हूँ ।। 6 ।। विष्णुरूप व्यास अथवा व्यासरूप श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ। वसिष्ठवंशज ब्रह्मनिधि श्रीव्यासजी को बारम्बार नमस्कार है ।। 7। । भगवान् वेदव्यासजी बिना चार मुख के ब्रह्मा हैं, दो भुजावाले दूसरे विष्णु हैं और और ललाटलोचन (तीसरे नेत्र) से रहित साक्षात् महादेवजी हैं ।। 8 ।।
अर्जुन ने पूछा- केशव ! मनुष्य बार-बार एक हजार नामों का जप क्यों करता है ? आपके जो दिव्य नाम हों, उनका वर्णन कीजिये।। 1 ।।
है तथा जो प्रसन्नवदन हैं, उन देवदेव चतुर्भुज भगवान् विष्णु का विघ्नों की निवृत्ति के लिये ध्यान करना चाहिये ।। 5 ।। जो वसिष्ठजी के नाती (प्रपौत्र), शक्ति के पौत्र, पराशरजी के पुत्र तथा शुकदेवजी के पिता हैं, उन निष्पाप, तपोनिधि, व्यासजी की मैं वन्दना करता हूँ ।। 6 ।। विष्णुरूप व्यास अथवा व्यासरूप श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ। वसिष्ठवंशज ब्रह्मनिधि श्रीव्यासजी को बारम्बार नमस्कार है ।। 7। । भगवान् वेदव्यासजी बिना चार मुख के ब्रह्मा हैं, दो भुजावाले दूसरे विष्णु हैं और और ललाटलोचन (तीसरे नेत्र) से रहित साक्षात् महादेवजी हैं ।। 8 ।।
अर्जुन ने पूछा- केशव ! मनुष्य बार-बार एक हजार नामों का जप क्यों करता है ? आपके जो दिव्य नाम हों, उनका वर्णन कीजिये।। 1 ।।
श्रीभगवानुवाच
मत्स्यं कूर्मं वराहं च वामनं च जनार्दनम्।
गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं माधवं मधुसूदनम्।।2।।
पद्मनाभं सहस्राक्षं वनमालिं हलायुधम्।
गोवर्धनं हृषीकेशं वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम्।।3।।
विश्वरूपं वासुदेवं रामं नारायणं हरिम्।
दामोदरं श्रीधरं च वेदांग गरुडध्वजम्।।4।।
अनन्तं कृष्णगोपालं जपतो नास्ति पातकम्।
गवां कोटिप्रदानस्य अश्वमेधशतस्य च।।5।।
कन्यादानसहस्राणां फलं प्राप्नोति मानव:।
अमायां वा पौर्णमास्यामेकादश्यां तथैव च।।6।।
सन्ध्याकाले स्मरेन्नित्यं प्रात:काले तथैव च।
मध्याह्ने च जपन्नित्यं सर्वपापै: प्रमुच्यते।।7।।
गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं माधवं मधुसूदनम्।।2।।
पद्मनाभं सहस्राक्षं वनमालिं हलायुधम्।
गोवर्धनं हृषीकेशं वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम्।।3।।
विश्वरूपं वासुदेवं रामं नारायणं हरिम्।
दामोदरं श्रीधरं च वेदांग गरुडध्वजम्।।4।।
अनन्तं कृष्णगोपालं जपतो नास्ति पातकम्।
गवां कोटिप्रदानस्य अश्वमेधशतस्य च।।5।।
कन्यादानसहस्राणां फलं प्राप्नोति मानव:।
अमायां वा पौर्णमास्यामेकादश्यां तथैव च।।6।।
सन्ध्याकाले स्मरेन्नित्यं प्रात:काले तथैव च।
मध्याह्ने च जपन्नित्यं सर्वपापै: प्रमुच्यते।।7।।
इति श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रीविष्णोरष्टाविंशतिनामस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
----------------------------------------------------
श्रीभगवान् बोले- अर्जुन ! मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, जनार्दन, गोविन्द, पुण्डरीकाक्ष, माधव, मधुसूदन, पद्मनाभ, सहस्राक्ष, वनमाली, हलायुध, गोवर्धन, हृषीकेश, वैकुण्ठ, पुरुषोत्तम, विश्वरूप, वासुदेव, राम, नारायण, हरि, दामोदर, श्रीधर, वेदांग, गरुडध्वज, अनन्त और कृष्णगोपाल- इन नामों का जप करनेवाले मनुष्य के भीतर पाप नहीं रहता। वह एक करोड़ गो-दान, एक सौ अश्वमेधयज्ञ और एक हजार कन्यादान का फल प्राप्त करता है। अमावस्या, पूर्णिमा तथा एकादशी तिथि को और प्रतिदिन सायं-प्रात: एवं मध्याह्न के समय इन नामों का स्मरणपूर्वक जप करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।2-7।।
श्रीभगवान् बोले- अर्जुन ! मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, जनार्दन, गोविन्द, पुण्डरीकाक्ष, माधव, मधुसूदन, पद्मनाभ, सहस्राक्ष, वनमाली, हलायुध, गोवर्धन, हृषीकेश, वैकुण्ठ, पुरुषोत्तम, विश्वरूप, वासुदेव, राम, नारायण, हरि, दामोदर, श्रीधर, वेदांग, गरुडध्वज, अनन्त और कृष्णगोपाल- इन नामों का जप करनेवाले मनुष्य के भीतर पाप नहीं रहता। वह एक करोड़ गो-दान, एक सौ अश्वमेधयज्ञ और एक हजार कन्यादान का फल प्राप्त करता है। अमावस्या, पूर्णिमा तथा एकादशी तिथि को और प्रतिदिन सायं-प्रात: एवं मध्याह्न के समय इन नामों का स्मरणपूर्वक जप करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।2-7।।
3-षट्पदी
अविनयमपनय विष्णो दमय मन: शमय विषयमृगतृष्णाम्।
भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरत:।।1।।
दिव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे।
श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे वन्दे।।2।।
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्।
सामुद्रो हि तरंग कंचन समुद्रो न तारंगः।।3।।
उद्धृतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे।
दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कार:।।4।।
मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवतावता सदा वसुधाम्।
परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोऽहम्।।5।।
भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरत:।।1।।
दिव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे।
श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे वन्दे।।2।।
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्।
सामुद्रो हि तरंग कंचन समुद्रो न तारंगः।।3।।
उद्धृतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे।
दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कार:।।4।।
मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवतावता सदा वसुधाम्।
परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोऽहम्।।5।।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book