कहानी संग्रह >> दूसरा मसीहा दूसरा मसीहानिर्मल कुमार मिश्र
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निर्मल मिश्र की पन्द्रह कहानियों का संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अनुक्रम
1. वापसी
2. हमेशा के लिए
3. ताश के पत्ते
4. किरायेदार
5. मोह भंग
6. विदाई समारोह
7. अलविदा
8. धुंध की लकीर
9. अभियुक्त
10. समझौता
11. परिक्रमा
12. एक कहानी की तलाश
13. दूसरा मसीहा
14. उपहार
15. नई कोशिश
1. वापसी
2. हमेशा के लिए
3. ताश के पत्ते
4. किरायेदार
5. मोह भंग
6. विदाई समारोह
7. अलविदा
8. धुंध की लकीर
9. अभियुक्त
10. समझौता
11. परिक्रमा
12. एक कहानी की तलाश
13. दूसरा मसीहा
14. उपहार
15. नई कोशिश
वापसी
वह अपनी भयभीत आशा को दबाए सामान पैक करने में जुट गया । उस समय न किसी छूटती हुई चीज को पाने को भ्रम था और न पाई हुई चीज को खोने की चाह। बस, एक ही धुन पल रही थी - कैसे वहाँ से निकलें।
वार्डरोब में टंगे पैंट, कमीजें, कोट, स्वेटर, गाऊन, टाइयाँ.. फर्श पर पड़े जूते-चप्पल.... दराज में रखे रूमाल, मोजे, शेविंग किट.. टेबुल पर पड़ी किताबें, कापियां.. इन सबों को अलग-अलग पोटलियों में समेटता गया। इनके अलावे एक बड़ा सूटकेस था और कपड़ों से भरा एक लौंड़्री बैग। रात के दस बजने को हैं। शुरू बसंत की रात, जिसमें सर्दियों की लालसाएं चिपकी हुई हैं। वह अपने सूटकेस के ऊपर बैठा पीटर का इंतजार कर रहा है। उस छोटे से कमरें में रिरियाते सन्नाटे का ज्वार उसकी साँसों में सिमट आया है। अकुलाहट हर पल बढ़ती जा रही है। शून्य में भटकती उसकी दृष्टि सिंक पर स्थिर हो जाती है जिसमें डूबे-अधडूबे गंदे बर्तनों का अम्बार है- गिलास, प्लेटें, कप ये सब लदे-फदे औंधे एक-दूसरे से विरक्त। अपार्टमेंट की बोझिल दीवारों के बीच उसकी स्मृतियां घूम रही हैं एक जिद्दी चमगादड़ की मानिंद.. वह भी एक शाम थी। लेकिन उस शाम को इस कमरे का वातावरण कितना भिन्न था । कितना स्निग्ध! शिप्रा उसी सिंक के पास कुकिंग रेंज के सामने खड़ी खाना पका रही थी । जब वह कमरे में दाखिल हुआ था, उसकी आंखें चमक उठी थीं। "शिप्रा जी, आपने कितना सारा आइटम बना रखा है, कौन खाएगा इतना?"
इसके इस प्रश्न के जवाब में बोली थी "तुमको ही सब खाना पड़ेगा ।" उसके स्वर में एक अजीब-सा कंपन उभर आया था, वैसा जो स्नेह प्रदर्शित करने के समय आ जाता है। वह अकचका गया था... यह क्या? इतना सारा सामान तैयार कर लिया है, और मुझे कहती है सब खाने को।
जैसे मैं कोई राक्षस हूं। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। वह कोई प्रतिवाद नहीं करना चाहता था। शिप्रा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था, रोबदार, स्वच्छंद, निश्छल और स्नेहिल। शिप्रा की उम्र भी ऐसी जगह ठिठक गई थी जहाँ से न वह बढ़ती दिखाई देती और न कम होती नजर आती, और कई वजहों मे यह भी एक थी कि वह "शिप्रा जी" से अधिक उपयुक्त संबोधन उसके लिए ढूँढ नहीं पाया था।
"सोफे पर मत बैठ जाओ । मेरा कुछ काम भी कर दो ।"
"कहिए, क्या करना है मुझे!" वह सोफे से उठकर बोला।
"यहां आओ... मेरे पास... और देखो, खाना कैसे बनता है।"
वह चुपचाप शिप्रा के करीब खड़ा हो गया । वह पूड़ियां निकालती रही। वह पूड़ियों को देखता और फिर उसकी एक सरसरी निगाह अपार्टमेंट में घूम जाती, और अंत में शिप्रा पर आ टिकती। शिप्रा की सीप-सी आंखें आंच की नीली ली में मायावी सी लगतीं - होठों पर लिपिस्टिक, रेशमी साड़ी, कांतिमय मुखमंडल, सुडौल बाँहें, कानों पर झिलमिल करता आभूषण - होठों के ऊपर पसीने की उभरती बूँदें - सभी आकर्षक और लययुक्त।
वह शिप्रा की आखिरी रात थी - चैपल हिल में। यह अपने आप में एक दुःखद बात थी, क्योंकि उस समय ऐसा लग रहा था, मानो वक्त का यह मोड़ अचानक आ गया है। वह अपनी ट्रेनिंग पूरी कर वापस लौट रही थी - हमेशा के लिए। उस छोटे से शहर में उसके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थीं, और यह स्वाभाविक था कि उस शहर को छोड़ते वक्त वहाँ की छोटी-छोटी चीजों से भी आत्मीय लगाव हो जाता। यही कुछ चीजें होती हैं जो बाद में स्मृतियों मैं तैरती रहती हैं और जाने-अनजाने आंखों के सामने चली आती है, जैसे कोई सपना।
ऐसी ही घड़ी में शिप्रा ने कहा था- "मैं सारे यूटैन्सिल्स छोड़ जाती हूं तुम अपार्टमेंट अपने नाम करा लो ।"
वार्डरोब में टंगे पैंट, कमीजें, कोट, स्वेटर, गाऊन, टाइयाँ.. फर्श पर पड़े जूते-चप्पल.... दराज में रखे रूमाल, मोजे, शेविंग किट.. टेबुल पर पड़ी किताबें, कापियां.. इन सबों को अलग-अलग पोटलियों में समेटता गया। इनके अलावे एक बड़ा सूटकेस था और कपड़ों से भरा एक लौंड़्री बैग। रात के दस बजने को हैं। शुरू बसंत की रात, जिसमें सर्दियों की लालसाएं चिपकी हुई हैं। वह अपने सूटकेस के ऊपर बैठा पीटर का इंतजार कर रहा है। उस छोटे से कमरें में रिरियाते सन्नाटे का ज्वार उसकी साँसों में सिमट आया है। अकुलाहट हर पल बढ़ती जा रही है। शून्य में भटकती उसकी दृष्टि सिंक पर स्थिर हो जाती है जिसमें डूबे-अधडूबे गंदे बर्तनों का अम्बार है- गिलास, प्लेटें, कप ये सब लदे-फदे औंधे एक-दूसरे से विरक्त। अपार्टमेंट की बोझिल दीवारों के बीच उसकी स्मृतियां घूम रही हैं एक जिद्दी चमगादड़ की मानिंद.. वह भी एक शाम थी। लेकिन उस शाम को इस कमरे का वातावरण कितना भिन्न था । कितना स्निग्ध! शिप्रा उसी सिंक के पास कुकिंग रेंज के सामने खड़ी खाना पका रही थी । जब वह कमरे में दाखिल हुआ था, उसकी आंखें चमक उठी थीं। "शिप्रा जी, आपने कितना सारा आइटम बना रखा है, कौन खाएगा इतना?"
इसके इस प्रश्न के जवाब में बोली थी "तुमको ही सब खाना पड़ेगा ।" उसके स्वर में एक अजीब-सा कंपन उभर आया था, वैसा जो स्नेह प्रदर्शित करने के समय आ जाता है। वह अकचका गया था... यह क्या? इतना सारा सामान तैयार कर लिया है, और मुझे कहती है सब खाने को।
जैसे मैं कोई राक्षस हूं। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। वह कोई प्रतिवाद नहीं करना चाहता था। शिप्रा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था, रोबदार, स्वच्छंद, निश्छल और स्नेहिल। शिप्रा की उम्र भी ऐसी जगह ठिठक गई थी जहाँ से न वह बढ़ती दिखाई देती और न कम होती नजर आती, और कई वजहों मे यह भी एक थी कि वह "शिप्रा जी" से अधिक उपयुक्त संबोधन उसके लिए ढूँढ नहीं पाया था।
"सोफे पर मत बैठ जाओ । मेरा कुछ काम भी कर दो ।"
"कहिए, क्या करना है मुझे!" वह सोफे से उठकर बोला।
"यहां आओ... मेरे पास... और देखो, खाना कैसे बनता है।"
वह चुपचाप शिप्रा के करीब खड़ा हो गया । वह पूड़ियां निकालती रही। वह पूड़ियों को देखता और फिर उसकी एक सरसरी निगाह अपार्टमेंट में घूम जाती, और अंत में शिप्रा पर आ टिकती। शिप्रा की सीप-सी आंखें आंच की नीली ली में मायावी सी लगतीं - होठों पर लिपिस्टिक, रेशमी साड़ी, कांतिमय मुखमंडल, सुडौल बाँहें, कानों पर झिलमिल करता आभूषण - होठों के ऊपर पसीने की उभरती बूँदें - सभी आकर्षक और लययुक्त।
वह शिप्रा की आखिरी रात थी - चैपल हिल में। यह अपने आप में एक दुःखद बात थी, क्योंकि उस समय ऐसा लग रहा था, मानो वक्त का यह मोड़ अचानक आ गया है। वह अपनी ट्रेनिंग पूरी कर वापस लौट रही थी - हमेशा के लिए। उस छोटे से शहर में उसके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थीं, और यह स्वाभाविक था कि उस शहर को छोड़ते वक्त वहाँ की छोटी-छोटी चीजों से भी आत्मीय लगाव हो जाता। यही कुछ चीजें होती हैं जो बाद में स्मृतियों मैं तैरती रहती हैं और जाने-अनजाने आंखों के सामने चली आती है, जैसे कोई सपना।
ऐसी ही घड़ी में शिप्रा ने कहा था- "मैं सारे यूटैन्सिल्स छोड़ जाती हूं तुम अपार्टमेंट अपने नाम करा लो ।"
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