विविध उपन्यास >> लाल टीन की छत लाल टीन की छतनिर्मल वर्मा
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‘लाल टीन की छत’ उनकी सृजनात्मक यात्रा का एक प्रस्थान बिन्दु है जिसे उन्होंने उम्र के एक ख़ास समय पर फ़ोकस किया है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी कहानी को निर्विवाद रूप से एक नयी कथा-भाषा प्रदान करने वाले अग्रणी कथाकार निर्मल वर्मा की साहित्यिक संवेदना एक ’जादुई लालटेन’ की तरह पाठकों के मानस पर प्रभाव डालती है। प्रायः सभी आलोचक इस बात पर एकमत हैं कि समकालीन कथा-साहित्य को उन्होंने एक निर्णायक मोड़ दिया है।
’लाल टीन की छत’ उनकी सृजनात्मक यात्रा का एक प्रस्थान बिन्दु है जिसे उन्होंने उम्र के एक ख़ास समय पर फ़ोकस किया है। ’बचपन के अन्तिम कगार से किशोरावस्था के रूखे पाट पर बहता हुआ समय, जहाँ पहाड़ों के अलावा कुछ भी स्थिर नहीं है।’ यहाँ चीज़ों को मानवीय जीवन्तता को बचाए रखने की कोशिश ही उनके लिए रचना है। इस उपन्यास में आत्मा का अपना अकेलापन है तो देह की अपनी निजी और नंगी सच्चाइयों के साथ अकेले होने की यातना भी।
यह काया नाम की एक ऐसी लड़की की कथा है जो सरदी की लम्बी, सूनी छुट्टियों में इधर-उधर भटकती रहती है और अपनी स्मृतियों के गुंजलक को खोलती रहती है। वह उम्र के एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ बचपन पीछे छूट चुका है और आने वाला समय अनेक संकेतों और रहस्यों-सन्देशों से भरा हुआ है। लेकिन यह सिर्फ़ अकेली लड़की की ही नहीं, बल्कि अकेली पड़ गयी संवेदना की भी कहानी है जहाँ पात्र अपने-अपने अँधेरे व्यक्तिगत कोनों में भटकते रहते हैं। यहाँ आतंक और सम्मोहन के ध्रुवों के बीच फैली अँधेरी भूल-भूलैया और स्मृतियों की रचनात्मक बुनावट में अनुभव तथा संवेदना के व्यापक अर्थ व अनुगूँजें अन्तर्निहित हैं।
सब तैयार था। बिस्तर, पोटलियाँ-एक सूटकेस। बाहर एक कुली खड़ा था, टट्टू की रास थामे-अनमने भाव से उस मकान को देख रहा था, जहाँ चार प्राणी गलियारे में खड़े थे-एक आदमी, एक औरत, एक बहुत छोटी औरत, जो बौनी-सी लगती थी-और उनसे ज़रा दूर एक गंजे सिरवाला लड़का, जो न आदमी जान पड़ता था, न बच्चा, लेकिन जिसका मुँह खुला था और एक अजीब खाली मुस्कान एक कान से दूसरे कान तक फैली थी।
मकान के ऊपर लाल टीन की छत थी। वह दुपहर की धूप में शीशे-सी चमक रही थी।
वह मार्च का महीना था।
कुछ देर तक सन्नाटा खिंचा रहा। सिर्फ टट्टू कभी-कभी अपना सिर हिला देता था। समान एक तरफ जमा होता गया।
अब शायद कोई चीज मकान से बाहर नहीं आएँगी, कुली ने सोचा। एक बार फिर आँखें गलियारे पर उठीं-चारों व्यक्ति वैसे ही रेलिंग के पीछे खड़े थे-बिना हिले-डुले, निश्चल, जैसे धूप में अपनी तस्वीर खिंचा रहे हों !
नीचे की मंजिल के सब दरवाजे बन्द थे। सामने एक छोटा-सा गेट था, जो बाग की तरफ खुलता था। गेट पर ही टीन का एक लेटर-बॉक्स लटक रहा था, एक कील पर अटका हुआ, जैसे कोई मरा हुआ पक्षी औंधा झूल रहा हो! हवा चलती, तो वह हिलने लगता, एक धीमी-सी आवाज फैल जाती और टट्टू चौंककर चारों तरफ अपनी थकी, डबडबाई आँखों से देखने लगता।
हलकी-सी हलचल हुई तो कुली का ध्यान सहसा ऊपर बरामदे की तरफ गया। कमरे से एक लड़की बाहर निकली-उसके पीछे एक अधेड़ किस्म का आदमी जिसके कन्धों पर लम्बे बालों की चोटियाँ लटकी थीं-वह एक छोटा-सा बैग उठाकर आ रहा था। कपड़ों से, चाल-ढाल से वह घर का नौकर दिखाई देता था। वह घिसटता हुआ चल रहा था, लड़की के पीछे-पीछे और उसके बोझिल कदमों के नीचे समूचा बरामदा हिल रहा था।
वे सीढ़ियाँ उतर रहे थे।
अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचकर लड़की ठिठक गई। उसे कुछ याद आया, जैसे जल्दी में वह कोई चीज भूल गई हो। वह दुबारा सीढ़ियाँ चढ़ने लगी, बरामदे में आकर घर के पिछवाड़े की तरफ मुड़ गई-और एक क्षण में आँखों से लोप हो गई। कहाँ गई ? कुली को विस्मय हुआ। टट्टू ने पूँछ हिलाई। नौकर ने बैग जमीन पर रख दिया और मैली, मिचमिचाती, आँखों से पहाड़ों को देखने लगा, जो मार्च की धूप में निखर आए थे, बर्फ में धुले हुए-साफ और नंगे। वह अपने कमरे के पीछे आई, जहाँ वह खड़ा था, एक छोटा-सा लड़का दो बड़ी-बड़ी चमकती, आँखें, माथे पर भूरे बालों का बवंडर। वह उसकी ओर देख रहा था।
मैं जा रही हूँ...लड़की के होंठ फड़फड़ाए, लेकिन स्वर बाहर नहीं आया-और लड़के ने पीठ मोड़ ली। वह पास आई, मन में आया, वापस लौट जाए, लेकिन वह वहाँ खड़ी रही, लड़के की साँसें सुनती हुई, देखती हुई, बीती सर्दियों की उसाँस-जो अब दोनों के बीच भरने लगी थी। उसने आँखें मूँद लीं-दुपहर की धूप में अचानक अँधेरा चला आया, बर्फ, हवा, लम्बी ठिठुरती छुट्टियाँ दुबारा लौटने लगीं।
काया, ओ री काया...नीचे से आवाज आई। वे उसे बुला रहे थे। वे प्रतीक्षा कर रहे थे-कुली टट्टू, गलियारे में खड़े चार व्यक्ति...और पहाड़ जो मकान के चारों तरफ थे, चुपचाप चमकते हुए।
’लाल टीन की छत’ उनकी सृजनात्मक यात्रा का एक प्रस्थान बिन्दु है जिसे उन्होंने उम्र के एक ख़ास समय पर फ़ोकस किया है। ’बचपन के अन्तिम कगार से किशोरावस्था के रूखे पाट पर बहता हुआ समय, जहाँ पहाड़ों के अलावा कुछ भी स्थिर नहीं है।’ यहाँ चीज़ों को मानवीय जीवन्तता को बचाए रखने की कोशिश ही उनके लिए रचना है। इस उपन्यास में आत्मा का अपना अकेलापन है तो देह की अपनी निजी और नंगी सच्चाइयों के साथ अकेले होने की यातना भी।
यह काया नाम की एक ऐसी लड़की की कथा है जो सरदी की लम्बी, सूनी छुट्टियों में इधर-उधर भटकती रहती है और अपनी स्मृतियों के गुंजलक को खोलती रहती है। वह उम्र के एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ बचपन पीछे छूट चुका है और आने वाला समय अनेक संकेतों और रहस्यों-सन्देशों से भरा हुआ है। लेकिन यह सिर्फ़ अकेली लड़की की ही नहीं, बल्कि अकेली पड़ गयी संवेदना की भी कहानी है जहाँ पात्र अपने-अपने अँधेरे व्यक्तिगत कोनों में भटकते रहते हैं। यहाँ आतंक और सम्मोहन के ध्रुवों के बीच फैली अँधेरी भूल-भूलैया और स्मृतियों की रचनात्मक बुनावट में अनुभव तथा संवेदना के व्यापक अर्थ व अनुगूँजें अन्तर्निहित हैं।
प्रथम खंड
एक साँस में
लाल टीन की छत
मकान के ऊपर लाल टीन की छत थी। वह दुपहर की धूप में शीशे-सी चमक रही थी।
वह मार्च का महीना था।
कुछ देर तक सन्नाटा खिंचा रहा। सिर्फ टट्टू कभी-कभी अपना सिर हिला देता था। समान एक तरफ जमा होता गया।
अब शायद कोई चीज मकान से बाहर नहीं आएँगी, कुली ने सोचा। एक बार फिर आँखें गलियारे पर उठीं-चारों व्यक्ति वैसे ही रेलिंग के पीछे खड़े थे-बिना हिले-डुले, निश्चल, जैसे धूप में अपनी तस्वीर खिंचा रहे हों !
नीचे की मंजिल के सब दरवाजे बन्द थे। सामने एक छोटा-सा गेट था, जो बाग की तरफ खुलता था। गेट पर ही टीन का एक लेटर-बॉक्स लटक रहा था, एक कील पर अटका हुआ, जैसे कोई मरा हुआ पक्षी औंधा झूल रहा हो! हवा चलती, तो वह हिलने लगता, एक धीमी-सी आवाज फैल जाती और टट्टू चौंककर चारों तरफ अपनी थकी, डबडबाई आँखों से देखने लगता।
हलकी-सी हलचल हुई तो कुली का ध्यान सहसा ऊपर बरामदे की तरफ गया। कमरे से एक लड़की बाहर निकली-उसके पीछे एक अधेड़ किस्म का आदमी जिसके कन्धों पर लम्बे बालों की चोटियाँ लटकी थीं-वह एक छोटा-सा बैग उठाकर आ रहा था। कपड़ों से, चाल-ढाल से वह घर का नौकर दिखाई देता था। वह घिसटता हुआ चल रहा था, लड़की के पीछे-पीछे और उसके बोझिल कदमों के नीचे समूचा बरामदा हिल रहा था।
वे सीढ़ियाँ उतर रहे थे।
अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचकर लड़की ठिठक गई। उसे कुछ याद आया, जैसे जल्दी में वह कोई चीज भूल गई हो। वह दुबारा सीढ़ियाँ चढ़ने लगी, बरामदे में आकर घर के पिछवाड़े की तरफ मुड़ गई-और एक क्षण में आँखों से लोप हो गई। कहाँ गई ? कुली को विस्मय हुआ। टट्टू ने पूँछ हिलाई। नौकर ने बैग जमीन पर रख दिया और मैली, मिचमिचाती, आँखों से पहाड़ों को देखने लगा, जो मार्च की धूप में निखर आए थे, बर्फ में धुले हुए-साफ और नंगे। वह अपने कमरे के पीछे आई, जहाँ वह खड़ा था, एक छोटा-सा लड़का दो बड़ी-बड़ी चमकती, आँखें, माथे पर भूरे बालों का बवंडर। वह उसकी ओर देख रहा था।
मैं जा रही हूँ...लड़की के होंठ फड़फड़ाए, लेकिन स्वर बाहर नहीं आया-और लड़के ने पीठ मोड़ ली। वह पास आई, मन में आया, वापस लौट जाए, लेकिन वह वहाँ खड़ी रही, लड़के की साँसें सुनती हुई, देखती हुई, बीती सर्दियों की उसाँस-जो अब दोनों के बीच भरने लगी थी। उसने आँखें मूँद लीं-दुपहर की धूप में अचानक अँधेरा चला आया, बर्फ, हवा, लम्बी ठिठुरती छुट्टियाँ दुबारा लौटने लगीं।
काया, ओ री काया...नीचे से आवाज आई। वे उसे बुला रहे थे। वे प्रतीक्षा कर रहे थे-कुली टट्टू, गलियारे में खड़े चार व्यक्ति...और पहाड़ जो मकान के चारों तरफ थे, चुपचाप चमकते हुए।
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