गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान पर विश्वास भगवान पर विश्वासहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है भगवान पर विश्वास.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
परिचय
भगवद्भक्त भाई लारेंस का जन्म सन् 1610 ई. में फ्रांस के लोरेन प्रान्त
में एक अशिक्षित और निर्धन परिवार में हुआ था। इनका नाम निकोलस हरमन था।
भगवान के प्रति अटूट श्रद्धा, भक्ति, रति और विश्वास के फलस्वरूप इनका
जीवन उत्तरोत्तर उन्नत होता गया, अन्त में ये परम सन्त की कोटि में पहुँच
गये एवं भाई लारेंस नाम से प्रख्यात हुए।
पहले ये एक साधारण सिपाही रहे, पीछे महाशय फोटबर्ट के यहाँ इन्होंने दरवानी की और अन्त में पंद्रह वर्षों तक पाचक (रसोइये) का काम किया। अठारह वर्ष की अवस्था में ही इन पर भगवत्कृपा हो गयी थी। तब से इनका जीवन एकमात्र भगवत् प्रेम की समाधि में ही बीता।
इस पुस्तिका में इनके चार सम्भाषण और पंद्रह पत्रों का भाषानुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। यह पुस्तिका अमेरिका के ‘यंग मेन्स क्रिश्चियन असोसियेसन’ के द्वारा प्रकाशित The Practice of Percent of Cod पुस्तिका के आधार पर लिखी गयी है। अंग्रेजी पुस्तिका एक फ्रेंच पुस्तक का अनुवाद है। मूल पुस्तक में लेख का नाम नहीं दिया गया है। इस हिन्दी अनुवाद के लेखक हमारे प्रिय भाई बाबा गिरधरदासजी हैं। आशा है, पाठक इस छोटी-सी, परन्तु महत्त्वपूर्ण पुस्तिका से विशेष लाभ उठावेंगे।
पहले ये एक साधारण सिपाही रहे, पीछे महाशय फोटबर्ट के यहाँ इन्होंने दरवानी की और अन्त में पंद्रह वर्षों तक पाचक (रसोइये) का काम किया। अठारह वर्ष की अवस्था में ही इन पर भगवत्कृपा हो गयी थी। तब से इनका जीवन एकमात्र भगवत् प्रेम की समाधि में ही बीता।
इस पुस्तिका में इनके चार सम्भाषण और पंद्रह पत्रों का भाषानुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। यह पुस्तिका अमेरिका के ‘यंग मेन्स क्रिश्चियन असोसियेसन’ के द्वारा प्रकाशित The Practice of Percent of Cod पुस्तिका के आधार पर लिखी गयी है। अंग्रेजी पुस्तिका एक फ्रेंच पुस्तक का अनुवाद है। मूल पुस्तक में लेख का नाम नहीं दिया गया है। इस हिन्दी अनुवाद के लेखक हमारे प्रिय भाई बाबा गिरधरदासजी हैं। आशा है, पाठक इस छोटी-सी, परन्तु महत्त्वपूर्ण पुस्तिका से विशेष लाभ उठावेंगे।
हनुमानप्रसाद पोद्दार
।।श्रीहरि:।।
भगवान् पर विश्वास
[प्रेमी भक्त भाई लारेंस के सम्भाषण और पत्र]
सम्भाषण
(1)
भाई लारेंस से मेरी प्रथम भेंट तीन अगस्त सन् 1666 को हुई थी। उन्होंने
मुझे बताया-अठारह वर्ष की अवस्था में मुझ पर भगवान् की कृपा हुई, जिससे
मेरी जीवन-प्रणाली ही बदल गयी और मैं भगवद्विश्वासी बन गया।
शिशिर-काल में मैंने एक वृक्ष को पत्रहीन देखा; देखते ही मेरे मन में विचार उठा कि वह नंगा वृक्ष थोड़े ही काल में नयी हरी-हरी पत्तियों से आवृत हो जायगा। तदुपरान्त पुष्पों और फलों के आविर्भाव से उसकी शोभा और भी मनोरम हो जायगी। इसी विचारधारा में मुझको भगवान् की कृपा एवं विभव की एक अनूठी झाँकी प्राप्त हुई, जो सदा के लिये मेरे अन्तस्तल में स्थिर हो गयी और उसके परिणाम स्वरूप मेरे समस्त सांसारिक भगवत्प्रेम की जो ज्योति उत्पन्न हुई, उसका प्रकाश उसी समय इतना तीव्र था कि चालीस वर्ष से अधिक बीत जाने पर भी मैं यह नहीं बता सकता कि उस प्रकाश में और अभिवृद्धि हुई है।
मैं एकल कोषाध्यक्ष महाशय फोबर्ट (M-Fieubert) का अनुचर था। अपने कार्य में बड़ा अकुशल समझा जाता था, क्योंकि मुझसे प्रायः सभी वस्तुएँ टूट जाया करती थी मेरी इच्छा हुई कि मैं किसी मठ (Monastery) में ले लिया जाऊँ। यह विचार इसलिए उठा कि वहाँ रहने से मुझे भूलों और अपराधों के बन जाने पर दण्ड मिलेगा और इस प्रकार मैं अपने जीवन को लौकिक सुखोंसहित भगवत् मार्ग पर बलिदान कर दूँगा, परन्तु भगवान् ने मेरी वह अभिलाषा पूरी न की, क्योकिं मठ में रहने से मुझे जो दण्ड भोग प्राप्त हुआ, वह मेरे मन के सन्तुलन को किसी प्रकार प्रभावित न कर सका।
भगवान् के साथ निरन्तर वार्तालाप के अभ्यास द्वारा अपने को भगवत्सान्निध्य के भाव में भलीभाँति स्थिर कर लेना चाहिए। भगवान् के साथ (मानसिक) वार्तालाप को छोड़कर तुच्छ एवं मूर्खता भरी बातों को सोचना लज्जा की बात है। हमें अपने आत्मा को भगवत्सम्बन्धी ऊँची भावनाओं के आहार द्वारा पुष्ट करना चाहिए। इससे हमें भगवद्भक्ति के परमानन्द का प्रसाद प्राप्त होगा।
हमें चाहिए कि अपने भगवव्दिश्रास को सजीव बनायें। भगवान् में हमारा विश्वास कितना कम हैं यही तो शोचनीय विषय है। भगवव्दिश्वास को अपने आचरण का आधारस्तम्भ न बनाकर लोग मनोविनोद के लिए प्रतिदिन बदलनेवाले तुच्छ साधनों का आश्रय लेते है। भगवव्दिश्वास की साधना ही भगवान् की सच्ची आराधना है और यही हमें पूर्णता के अति निकट ले जाने के लिए पर्याप्त है।
लौकिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में हमें कुछ न रखकर सर्वस्व भगवान् को समर्पित कर देना चाहिये और उनके प्रत्येक विधान में सन्तोष का अनुभव करना चाहिये, चाहे वह विधान सुख के रूप में प्रकट हो अथवा दु:ख के। आत्मसमर्पण हो जाने पर विधान के सभी रूप हमारे लिये समान हो जायँगे। प्रार्थना में जब हमें नीरसता, भावशून्यता अथवा शिथिलता का अनुभव हो, उस समय हमें भगवद्विश्वास की आवश्यकता होती है, क्योंकि भगवद्विश्वास के अनुपात से ही भगवान् हमारे प्रेम की परीक्षा लेते हैं। यह वही समय है जब हर समर्पण के सुन्दर एवं सफल कार्य कर सकते हैं। ऐसा एक भी कार्य बन जाने पर वह हमारी आध्यात्मिक उन्नति को प्राय: अग्रसर करने में सहायक होता है।
जिन दु:खों और पापों के बारे में मैं नित्यप्रति इस संसार में सुनता था, उन पर मुझको विस्मय नहीं होता था, बल्कि आश्चर्यचकित हो मैं यह अनुभव करता था कि द्वेष से प्रेरित होकर लोग जितने पाप कर सकते हैं, उनकी अपेक्षा संसार में दु:ख और पाप कम हैं। अपनी ओर से ऐसे पापियों के लिये मैं प्रार्थना करता था, परन्तु यह समझकर कि भगवान् जब चाहेंगे, इन कुकृत्यों को दूर करने का उपाय स्वयं कर लेंगे, मैंने इस संबंध में फिर सोचने का कभी भी विचार नहीं किया।
‘जिस कोटि का समर्पण भगवान् हमसे चाहते हैं, उसको प्राप्त करने के लिये हमें आध्यात्मिक और भौतिक जगत् से मिली हुई सभी भावनाओं का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते रहना चाहिये। भगवान् की सेवा सच्चे मन से करने को आतुर हैं, भगवान् उनको वह प्रकाश प्रदान करेंगे जिसके आलोक में वे अपनी भावनाओं की ठीक-ठीक परख कर सकेंगे।’
चलते समय उन्होंने फिर कहा- ‘यदि यही अर्थात् भगवान् की निष्कपट सेवा ही आपका उद्देश्य हो तो आप बिना इस डर के कि मुझको कष्ट होगा, जितनी बार चाहें मेरे पास नि:संकोच आ सकते हैं, परन्तु यदि भगवत्सेवा आपका उद्देश्य नहीं है तो आप फिर मेरे पास न आवें।
शिशिर-काल में मैंने एक वृक्ष को पत्रहीन देखा; देखते ही मेरे मन में विचार उठा कि वह नंगा वृक्ष थोड़े ही काल में नयी हरी-हरी पत्तियों से आवृत हो जायगा। तदुपरान्त पुष्पों और फलों के आविर्भाव से उसकी शोभा और भी मनोरम हो जायगी। इसी विचारधारा में मुझको भगवान् की कृपा एवं विभव की एक अनूठी झाँकी प्राप्त हुई, जो सदा के लिये मेरे अन्तस्तल में स्थिर हो गयी और उसके परिणाम स्वरूप मेरे समस्त सांसारिक भगवत्प्रेम की जो ज्योति उत्पन्न हुई, उसका प्रकाश उसी समय इतना तीव्र था कि चालीस वर्ष से अधिक बीत जाने पर भी मैं यह नहीं बता सकता कि उस प्रकाश में और अभिवृद्धि हुई है।
मैं एकल कोषाध्यक्ष महाशय फोबर्ट (M-Fieubert) का अनुचर था। अपने कार्य में बड़ा अकुशल समझा जाता था, क्योंकि मुझसे प्रायः सभी वस्तुएँ टूट जाया करती थी मेरी इच्छा हुई कि मैं किसी मठ (Monastery) में ले लिया जाऊँ। यह विचार इसलिए उठा कि वहाँ रहने से मुझे भूलों और अपराधों के बन जाने पर दण्ड मिलेगा और इस प्रकार मैं अपने जीवन को लौकिक सुखोंसहित भगवत् मार्ग पर बलिदान कर दूँगा, परन्तु भगवान् ने मेरी वह अभिलाषा पूरी न की, क्योकिं मठ में रहने से मुझे जो दण्ड भोग प्राप्त हुआ, वह मेरे मन के सन्तुलन को किसी प्रकार प्रभावित न कर सका।
भगवान् के साथ निरन्तर वार्तालाप के अभ्यास द्वारा अपने को भगवत्सान्निध्य के भाव में भलीभाँति स्थिर कर लेना चाहिए। भगवान् के साथ (मानसिक) वार्तालाप को छोड़कर तुच्छ एवं मूर्खता भरी बातों को सोचना लज्जा की बात है। हमें अपने आत्मा को भगवत्सम्बन्धी ऊँची भावनाओं के आहार द्वारा पुष्ट करना चाहिए। इससे हमें भगवद्भक्ति के परमानन्द का प्रसाद प्राप्त होगा।
हमें चाहिए कि अपने भगवव्दिश्रास को सजीव बनायें। भगवान् में हमारा विश्वास कितना कम हैं यही तो शोचनीय विषय है। भगवव्दिश्वास को अपने आचरण का आधारस्तम्भ न बनाकर लोग मनोविनोद के लिए प्रतिदिन बदलनेवाले तुच्छ साधनों का आश्रय लेते है। भगवव्दिश्वास की साधना ही भगवान् की सच्ची आराधना है और यही हमें पूर्णता के अति निकट ले जाने के लिए पर्याप्त है।
लौकिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में हमें कुछ न रखकर सर्वस्व भगवान् को समर्पित कर देना चाहिये और उनके प्रत्येक विधान में सन्तोष का अनुभव करना चाहिये, चाहे वह विधान सुख के रूप में प्रकट हो अथवा दु:ख के। आत्मसमर्पण हो जाने पर विधान के सभी रूप हमारे लिये समान हो जायँगे। प्रार्थना में जब हमें नीरसता, भावशून्यता अथवा शिथिलता का अनुभव हो, उस समय हमें भगवद्विश्वास की आवश्यकता होती है, क्योंकि भगवद्विश्वास के अनुपात से ही भगवान् हमारे प्रेम की परीक्षा लेते हैं। यह वही समय है जब हर समर्पण के सुन्दर एवं सफल कार्य कर सकते हैं। ऐसा एक भी कार्य बन जाने पर वह हमारी आध्यात्मिक उन्नति को प्राय: अग्रसर करने में सहायक होता है।
जिन दु:खों और पापों के बारे में मैं नित्यप्रति इस संसार में सुनता था, उन पर मुझको विस्मय नहीं होता था, बल्कि आश्चर्यचकित हो मैं यह अनुभव करता था कि द्वेष से प्रेरित होकर लोग जितने पाप कर सकते हैं, उनकी अपेक्षा संसार में दु:ख और पाप कम हैं। अपनी ओर से ऐसे पापियों के लिये मैं प्रार्थना करता था, परन्तु यह समझकर कि भगवान् जब चाहेंगे, इन कुकृत्यों को दूर करने का उपाय स्वयं कर लेंगे, मैंने इस संबंध में फिर सोचने का कभी भी विचार नहीं किया।
‘जिस कोटि का समर्पण भगवान् हमसे चाहते हैं, उसको प्राप्त करने के लिये हमें आध्यात्मिक और भौतिक जगत् से मिली हुई सभी भावनाओं का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते रहना चाहिये। भगवान् की सेवा सच्चे मन से करने को आतुर हैं, भगवान् उनको वह प्रकाश प्रदान करेंगे जिसके आलोक में वे अपनी भावनाओं की ठीक-ठीक परख कर सकेंगे।’
चलते समय उन्होंने फिर कहा- ‘यदि यही अर्थात् भगवान् की निष्कपट सेवा ही आपका उद्देश्य हो तो आप बिना इस डर के कि मुझको कष्ट होगा, जितनी बार चाहें मेरे पास नि:संकोच आ सकते हैं, परन्तु यदि भगवत्सेवा आपका उद्देश्य नहीं है तो आप फिर मेरे पास न आवें।
(2)
भाई लारेंस बोले- ‘स्वार्थरहित हो मैंने भगवत्प्रेम को ही अपने
जीवन
का ध्रुवतारा बनाया और मैंने निश्चय किया कि भगवत्प्रेम में ही मेरे
प्रत्येक कर्म का पर्यवसान होगा, अपनी इस साधन-पद्धति से मुझे यथेष्ट
सन्तोष का अनुभव भी हुआ। भगवत्प्रेम एवं भगवत्प्राप्ति के लिये मैं
छोटे-से-छोटा कार्य पाने की मुझे इच्छा नहीं हुई।’
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