धर्म एवं दर्शन >> ज्ञान सुधा-सागर ज्ञान सुधा-सागरस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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सुख की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। यद्यपि अनुकूल संवेदना के रूप में सुख को पारिभाषित किया जाता है....
Gyan Sudha-Sagar - A Hindi Book by Swami Avdheshanand Giri
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सुख की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। यद्यपि अनुकूल संवेदना के रूप में सुख को पारिभाषित किया जाता है, लेकिन आत्मनिष्ठ दृष्टि के कारण उसका कोई निश्चित स्वरूप उभरकर सामने नहीं आता है। एक समय कोई स्थान या कोई वस्तु व्यक्ति सुख दे रही है तो वह किसी दूसरे समय-स्थान पर सुख का कारण होगी, ऐसा निश्चित नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार सुख और कुछ नहीं मानव मन की अनुकूल दशा है। इस दशा में कैसे परिवर्तन किया जाए जिससे प्रतिकूलता पास न फटके, इसी कला की ओर यह पुस्तक इशारा करती है। छोटी-छोटी कहानियों द्वारा स्वयं को सुखी रखने के महत्वपूर्ण सूत्र इसमें दिए गए हैं।
पूज्य स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के संदेशों-उपदेशों में अध्यात्म केन्द्रीय विषय होता है। इसलिए वे सुख की बात नहीं करते क्योंकि सांसारिक सुख तो दुख में बदल जाता है। लेकिन जब इस परिवर्तन को कोई पहले से ही स्वीकार कर ले, तो स्थिति बदल जाती है। ट्रेन की सीट पर से उतरते समय आपको दुख नहीं होता। सीट की उपयोगिता है-उसमें सुख की भावना नहीं होती। इसीलिए अध्यात्म में ’आनंद’ की बात की जाती है, जिसे कुछ लोग ’आत्यंतिक सुख’ कहते हैं। सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है-जबकि आनंद का विरोधी कोई शब्द नहीं है। सुख पराश्रित है। यह व्यक्ति, स्थान या वस्तु सापेक्ष होता है। जबकि आनंद में निरपेक्षता का भाव आ जाता है। श्रीमद्भगवद् गीता में इसके लिए कहा गया है-स्वयं से स्वयं में संतुष्ट। यह स्थिति आत्मज्ञान से ही प्राप्त होती है।
स्वामीजी ने अपने जिज्ञासु भक्तों को समझाने के लिए समय-समय पर जिन छोटी-छोटी कहानियों का सहारा लिया है, उन्हें उनके संदेश के साथ यहां इस पुस्तक में प्रस्तुत किया जा रहा है, आशा है, ये आपकी शंकाओं का समाधान करने में उपयोगी होंगी। आपकी प्रतिक्रियाओं का हार्दिक स्वागत है।
पूज्य स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के संदेशों-उपदेशों में अध्यात्म केन्द्रीय विषय होता है। इसलिए वे सुख की बात नहीं करते क्योंकि सांसारिक सुख तो दुख में बदल जाता है। लेकिन जब इस परिवर्तन को कोई पहले से ही स्वीकार कर ले, तो स्थिति बदल जाती है। ट्रेन की सीट पर से उतरते समय आपको दुख नहीं होता। सीट की उपयोगिता है-उसमें सुख की भावना नहीं होती। इसीलिए अध्यात्म में ’आनंद’ की बात की जाती है, जिसे कुछ लोग ’आत्यंतिक सुख’ कहते हैं। सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है-जबकि आनंद का विरोधी कोई शब्द नहीं है। सुख पराश्रित है। यह व्यक्ति, स्थान या वस्तु सापेक्ष होता है। जबकि आनंद में निरपेक्षता का भाव आ जाता है। श्रीमद्भगवद् गीता में इसके लिए कहा गया है-स्वयं से स्वयं में संतुष्ट। यह स्थिति आत्मज्ञान से ही प्राप्त होती है।
स्वामीजी ने अपने जिज्ञासु भक्तों को समझाने के लिए समय-समय पर जिन छोटी-छोटी कहानियों का सहारा लिया है, उन्हें उनके संदेश के साथ यहां इस पुस्तक में प्रस्तुत किया जा रहा है, आशा है, ये आपकी शंकाओं का समाधान करने में उपयोगी होंगी। आपकी प्रतिक्रियाओं का हार्दिक स्वागत है।
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