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धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

मीनाक्षी देवी

ऐसी देवी जिनके नेत्र मछली की भांति सुंदर हों, उनका नाम 'मीनाक्षी हुआ। मीनाक्षी का प्रसिद्ध मंदिर मदुरै में है। इस मंदिर की भव्यता और उसका स्वरूप दर्शनीय है। मीनाक्षी मंदिर को पार्वती का मंदिर माना जाता है।

मीनाक्षी के जन्म की अनेक कथाएं हैं। उनका जन्म शिव की कृपा के फलस्वरूप हुआ था। जब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा तो उन्हें ब्रह्म-हत्या का पाप लगा। उस पाप के फलस्वरूप वह विकल होकर इधर-उधर घूमने लगे। तभी जंगल में उन्होंने सहसा एक शिवलिंग का स्पर्श किया। इससे उनके पाप की सारी मलिनता और ग्लानि का नाश हो गया। इंद्र को विश्वास हो गया कि वह पत्थर ही शिव का सच्चा रूप है। उन्होंने उस शिवलिंग को स्थापित करके उसकी विधिवत पूजा की। इसी शिवलिंग की पूजा करके परम प्रतापी कुलशेखर ने भी यश प्राप्त किया और उनकी मनोकामना पूर्ण हुई।

कुलशेखर का एक पुत्र था - माल्यध्वज। अपने पिता की भांति उसने भी शिव की पूजा करके संतान की याचना की। कालांतर में माल्यध्वज के एक पुत्री हुई। वह अत्यंत सुंदरी थी। उसकी आंखें मछली की तरह थीं और उसके शरीर से भी मछली की गंध आती थी। साथ ही उसमें एक विचित्रता यह भी थी कि उस लड़की के तीन स्तन थे। वह कहने को तो स्त्री थी लेकिन बड़ी पराक्रमी हुई। उसने कितनी ही लड़ाइयां लड़ीं और वीरतापूर्वक अनेक दुष्टों का विनाश किया। उसके पराक्रम की ख्याति सब ओर फैलने लगी।

अंतत: परम तेजस्वी सुंदर कुमार के रूप में श्री शिव स्वयं 'सुंदरेश्वर' के नाम से मीनाक्षी के सम्मुख प्रकट हुए। उनके सामने आते ही मीनाक्षी ने अपने अस्त्र पृथ्वी पर डाल दिए। उसके भीतर समस्त स्त्रियोचित गुण और लज्जा प्रकट हो गई। उसकी देह से मछली की गंध दूर हो गई। वह परम सुंदरी की भांति शिव के सम्मुख नतशिर होकर खड़ी हो गई।

सुंदरेश्वर शिव ने मीनाक्षी पार्वती से विवाह करना स्वीकार कर लिया। विवाह की अत्यंत धूमधाम से तैयारी हुई। विवाह की शुभ घड़ी आ पहुंची। मीनाक्षी के मन में शिव से मिलने की उत्कंठा जाग्रत हो गई। बारात दरवाजे पर आ लगी लेकिन उसके मामा के न आने से विवाह संपन्न नहीं हो सका। परंतु सुंदरेश्वर मीनाक्षी से विवाह की प्रतीक्षा में वहीं रुक गए। मीनाक्षी भी अपने शिव को प्राप्त करने के लिए वहीं खड़ी रही। वर्ष भर बाद जब शुभ मुहूर्त आएगा तब उन दोनों का विवाह संपन्न होगा।

मीनाक्षी की कथा में यह विचित्र स्थिति अमरता प्राप्त कर गई। उस क्षेत्र के लोगों ने सुंदरेश्वर और मीनाक्षी की उसी प्रतीक्षारत स्थिति में पूजा करना आरंभ कर दिया। हर वर्ष विवाह की यह शुभ घड़ी आती है लेकिन मामा तब भी नहीं आता। विवाह फिर टल जाता है। इसी प्रकार अनंतकाल तक केवल एक प्रतीक्षा ही शेष रह जाती है। मीनाक्षी और सुंदरेश्वर अपने-अपने मंदिरों में आज भी उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब उनका विवाह संपन्न होगा और शिवपार्वती के मिलन की वेला आएगी। प्रायः सभी पुराण कथाओं में किसी प्रकार अंत में मिलन ही दिखाया जाता है किंतु मीनाक्षी की यह कथा वियोग के क्षणों को स्थायी पूजा भाव में परिवर्तित कर डालने के कारण अनूठी है।

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