धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
नंदीश्वर
प्राचीन काल में एक बार सनत्कुमार जी ने श्री नंदीश्वर जी से पूछा, “हे नंदीश्वर! आप महादेव के अंश से कैसे उत्पन्न हुए तथा आपने शिवत्व कैसे प्राप्त किया? यह सब मैं सुनना चाहता हूं, आप कहिए।"
नंदीश्वर बोले, “हे सनत्कुमार! शिलाद नामक एक ऋषि थे। पितरों के उद्धार की इच्छा से उन्होंने इंद्र के उद्देश्य से बहुत समय तक कठोर तप किया। तप से संतुष्ट होकर इंद्र उनको वर देने गए। इंद्र ने शिलाद से कहा, 'मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम कोई वर मांग लो।' तब इंद्र को प्रणाम करके आदरपूर्वक स्तोत्रों से स्तुति कर शिलाद हाथ जोड़कर बोले, 'हे देवेश! आप प्रसन्न हैं तो मुझे मृत्युहीन अयोनिज पुत्र की प्राप्ति हो।' इंद्र बोले, 'हे महामुने! मैं तुमको मृत्युहीन अयोनिज पुत्र नहीं दे सकता, क्योंकि भगवान विष्णु से लेकर ब्रह्मा तक सब मृत्यु वाले हैं, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। यदि भगवान शिव प्रसन्न हो जाएं तो वह तुम्हें मृत्युहीन अयोनिज पुत्र प्रदान कर सकते हैं, अतः तुम शिव जी को प्रसन्न करो।' इतना कहकर इंद्र अपने लोक को चले गए।
"इंद्र के जाने के बाद शिलाद ने दिव्य सहस्र वर्ष तक महादेव जी की आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए तथा शिलाद से कहा, 'हे शिलाद! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं, अतः तुम्हें वर देने आया हूं। भगवान शिव के ध्यान में मग्न और समाधि में लीन शिलाद मुनि ने श्री शिव की वाणी नहीं सुनी। तब शिव ने शिलाद का हाथ से स्पर्श किया जिससे उनकी समाधि टूट गई। अपने नेत्रों के सम्मुख अपने आराध्य उमा सहित भगवान शंभु को देखकर वे आदरपूर्वक उनके चरणों में गिर पड़े और बड़े हर्ष से गद्गद वाणी में शिवजी की स्तुति करने लगे। तब देवदेवेश भगवान शिव ने शिलाद से कहा, 'हे तपोधन ! मैं तुम्हें वर देने आया हूं।' शिव जी के ऐसे वचन सुनकर शिलाद बोले, 'हे महेश्वर ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझको अपने समान मृत्युहीन अयोनिज पुत्र प्रदान करें।'
"शिवजी बोले, 'हे विप्र! मैं स्वयं ही तुम्हारे यहां नंदी नामक अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट होऊंगा। हे मुने! तुम मुझ लोकत्रयी के पिता के भी पिता होने का सौभाग्य प्राप्त करोगे।' इस प्रकार शिलाद को वर देकर शिव पार्वती सहित अंतर्धान हो गए। शिलाद मुनि ने अपने आश्रम पर पहुंचकर सारा वृत्तांत अन्य मुनियों से कहा तो सभी मुनि अत्यंत प्रसन्न हुए।"
नंदीश्वर आगे बोले, "हे सनत्कुमार! कुछ समय बीतने पर एक दिन शिलाद यज्ञ करने के निमित्त यज्ञ क्षेत्र जा रहे थे। मैं उसी समय शिव की आज्ञा से उनका पुत्र रूप होकर प्रलयाग्नि के समान देदीप्यमान रूप में प्रकट हुआ। उस समय देवताओं ने फूल बरसाए तथा ऋषिगण भी चारों तरफ से पुष्पवृष्टि करने लगे। हे मुने! उस समय मेरा स्वरूप प्रलयकाल के सूर्य और अग्नि के समान प्रकाशित तथा त्रिनेत्र, चतुर्भुज एवं जटा-मुकुटधारी था। साथ ही साथ वह त्रिशूल आदि शस्त्रों को धारण किए हुए था। मेरा ऐसा स्वरूप देखकर मेरे पिता जी ने मुझे प्रणाम किया और बोले, 'हे सुरेश्वर! तुमने मुझे महान आनंद दिया है, इस कारण तुम्हारा नाम 'नंदी' रखा जाता है। तदनंतर मेरे पिता मुझे अपनी पर्णकुटी में ले गए। पर्णकुटी में पहुंचकर मैंने अपना वह रूप त्याग कर मनुष्य शरीर धारण कर लिया।
“हे सनत्कुमार ! मुझ पर अत्यधिक स्नेह रखने वाले उन शालंकायन के पुत्र शिलाद ने मेरे संपूर्ण ज्ञातकर्म आदि संस्कार किए। पांच वर्ष की अवस्था में ही मेरे पिता ने मुझे सांगोपांग वेदों और शास्त्रों को पढ़ा दिया। सातवें वर्ष में मित्रावरुण संज्ञक दो मुनि शिवजी की आज्ञा से मुझे देखने आए। तब वे मेरे पिता से सत्कार को प्राप्त होकर बोले, 'हे तात! संपूर्ण शास्त्रों में पारगामी ऐसा बालक हमने नहीं देखा, परंतु तुम्हारा यह पुत्र नंदी थोड़ी अवस्था वाला है। इसकी आयु का मात्र एक वर्ष बाकी है।'
उन ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर मेरे पिता शिलाद उच्च स्वर में रोने लगे। मैंने अपने पिता को रोते हुए देखकर कहा, 'हे पिताश्री ! आप क्यों रोते हैं, यह मैं तत्तपूर्वक जानना चाहता हूं?' पिता बोले, 'पुत्र! मैं तुम्हारी अल्पमृत्यु के दुख से दुखी हूं। मैंने कहा, 'हे पिताश्री! देवता, दानव, यमराज, काल तथा मनुष्य भी मुझे मारें, तो भी मेरी अल्पमृत्यु नहीं होगी। इस कारण आप दुखी मत होइए। हे पिताजी ! यह मैं आपसे सत्य कहता हूं, आपकी शपथ खाता हूं।' पिता बोले, 'हे पुत्र! तुम्हारी अल्पमृत्यु को कौन दूर करेगा?'
तब मैंने कहा, 'हे तात! मैं तप अथवा विद्या से मृत्यु को दूर नहीं करूंगा, केवल महादेव जी के भजन से मैं इस मृत्यु को जीतूंगा, इसमें संदेह नहीं है।''
नंदीश्वर बोले, "हे मुने! इस प्रकार कहकर पिता के चरणों में प्रणाम और उनकी प्रदक्षिणा करके मैं श्रेष्ठ वन को चला गया।"
नंदिकेश्वर पुनः बोले, “हे मुने! वन में जाकर मैं एकांत स्थल में अत्यंत कठिन तथा श्रेष्ठ मुनियों के लिए भी दुष्कर तप करने लगा। मैं पंचमुख सदाशिव के ध्यान में मग्न होकर पवित्र नदी के उत्तर भाग में सावधान हो रुद्र मंत्र जपने लगा। तब सदाशिव पार्वती सहित प्रकट होकर बोले, 'हे शिलाद-नंदन! मैं तुम्हारे तप से संतुष्ट हूं, तुम अभीष्ट वर मांगो।' सामने शिव-पार्वती को देखकर अपने सिर को उनके चरणों में झुकाकर मैं उनकी स्तुति करने लगा। तब उन परमेश वृषभध्वज ने दोनों हाथों से मुझे पकड़कर स्पर्श किया तथा बोले, 'हे वत्स! हे महाप्राज्ञ! तुम्हें मृत्यु से भय कहां? उन दोनों ब्राह्मणों को मैंने ही भेजा था। तुम मेरे ही समान हो, इसमें कोई संशय नहीं है। तुम अपने पिता और सुहृज्जनों सहित अजर, दुख रहित, अविनाशी, अक्षय तथा मेरे प्रिय होगे।'
"इस प्रकार कहकर उन्होंने कमलों से बनी अपनी शिरोमाला उतारकर शीघ्र ही मेरे कंठ में डाल दी। हे मुने! उस सुंदर माला को कंठ में पहनते ही मैं तीन नेत्र और दस भुजाओं वाला मानो दूसरा शिव हो गया। परमेश्वर ने कहा, ‘और क्या श्रेष्ठ वर दूं?' इतना कहकर वृषभध्वज ने अपनी जटाओं से हार के समान निर्मल जल ग्रहण कर 'नंदी हो' कहकर मेरे ऊपर छिड़का। उस जल से पांच शुभ नदियां-जटोदका, त्रिस्रोता, वृषध्वनि, स्वर्णोदका और जंबू नदी उत्पन्न होकर बहने लगीं। यह पंचनद नामक परम पवित्र शिव का पृष्ठदेश जपेश्वर के समीप वर्तमान है। फिर शिव जी पार्वती से बोले, 'मैं नंदी को गणेश्वर पद से अभिषिक्त करता हूं, क्या इसमें तुम्हारी सम्मति है?' पार्वती जी बोलीं, 'हे देवेश! यह शिलाद पुत्र नंदी आज से मेरा महाप्रिय पुत्र हुआ।
“तदनंतर शिवजी ने अपने सभी गणों को बुलाकर कहा, 'यह नंदीश्वर मेरा पुत्र, सब गणों का अधिपति तथा प्रियगणों में मुख्य हुआ। सभी को मेरे इस वचन का पालन करना चाहिए। तुम सब प्रीतिपूर्वक नंदी को स्नान कराओ। आज से यह नंदी तुम सबका स्वामी हुआ।' शिवजी के ऐसा कहने पर समस्त गण अभिषेक की सब सामग्री ले आए। तदनंतर इंद्र सहित सभी देवता, नारायण और मुनि प्रसन्न होकर सब लोकों से आए। शिव के नियोग से ब्रह्मा जी ने नंदी का अभिषेक किया। तब विष्णु ने, फिर इंद्र ने और इसके बाद लोकपालों ने अभिषेक किया। तत्पश्चात सभी ने नंदीश्वर की स्तुति की।''
नंदीश्वर ने आगे कहा, “हे विप्र! इस प्रकार गणाध्यक्ष पद पर अभिषिक्त होने के उपरांत मुझ नंदी ने ब्रह्मा जी की आज्ञा से 'सुयशा' नामक मरुत की परम सुंदर कन्या से विवाह किया। विवाह के समय जब मैं उस रूपवती सुयशा के साथ मनोहर सिंहासन पर बैठा। तब महालक्ष्मी ने मुझे मुकुट से सजाया और अपने कंठ का दिव्य हार मुझे दिया। श्वेत वृषभ, हाथी, सिंह की ध्वजा एवं सुवर्ण का हार इत्यादि वस्तुएं भी मुझे मिलीं। विवाह के पश्चात मैंने ब्रह्मा और विष्णु के चरणों में नमस्कार किया। तभी शिव ने मुझे सपत्नीक देख परम प्रीति से कहा, 'हे सत्पुत्र! तुम पति और यह सुयशा तुम्हारी पत्नी है। मैं तुमको वही वर दूंगा, जो तुम्हारे मन में है। तुम सदा मेरे प्रिय रहोगे। तुम अजेय महाबली होकर पूजनीय होगे। जहां मैं रहूंगा, वहां तुम रहोगे और जहां तुम होगे, वहां मैं रहूंगा।' इस प्रकार कहकर शिव जी उमा सहित कैलास को चले गए।"
नंदीश्वर बोले, “हे सनत्कुमार! जिस प्रकार मैंने शिवत्व प्राप्त किया, वह कथा मैंने आपको सुना दी।''
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