लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

243 पाठक हैं

’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

 

अग्निदेव

जड़-चेतनमयी सृष्टि-निर्माण के मूलभूत पांच तत्वों (आकाश, वायु, न जल और पृथ्वी) में से अग्नि एक तत्व है। सृष्टि-रचना और प्राणियों के जीवन में अग्नि का विशेष महत्व है, अतः शास्त्रों के अनुसार अग्नि भी देवता हैं। पुराणों के अनुसार अग्नि देवता की उत्पत्ति विराट पुरुष के मुख से हुई है। और देव-जगत में ये धर्म की पत्नी वसुभार्या के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं।

अग्निदेव का वर्ण लाल है और उनके नेत्र पीले हैं। शक्ति और अक्षसूत्र इनके अस्त्र हैं। मेढ़ा इनका वाहन है। ये यज्ञ में दी गई आहुति को ग्रहण करते हैं। अग्निदेव की पत्नी का नाम 'स्वाहा' है। अतः यज्ञ में अग्निदेव को आहुति देते समय 'स्वाहा' शब्द का उच्चारण करते हैं। दक्षिण और पूर्व दिशा के कोण को ‘अग्नि कोण' कहते हैं। अग्निदेव आग्नेय कोण के दिक्पाल हैं।

यों तो अग्निदेव के अनेक रूप हैं किंतु उनके ये तीन रूप अधिक विख्यात हैं-जठराग्नि, बड़वाग्नि और दावाग्नि। जठराग्नि का निवास प्राणियों के उदर में होता है। ये भोजन का पाचन करते हैं। जठराग्नि के मंद होने पर प्राणि के उदर में भोजन का पाचन ठीक तरह से नहीं होता जिससे प्राणी बीमार हो जाता है। अग्निदेव बड़वाग्नि रूप से समुद्र में निवास करते हैं और निरंतर प्रज्वलित रहते हैं। दावाग्नि के रूप में ये वन में निवास करते हैं। जब दावाग्नि भड़कते हैं। तो मीलों में फैले वन को जलाकर राख कर देते हैं।

इसके अलावा सूर्य मंडल में अग्निदेव दिव्याग्नि रूप में विराजमान हैं। वे बादलों में विद्युत रूप से निवास करते हैं। पत्थर और लकड़ी में ये अदृश्य रूप से रहते हैं। प्राचीन समय में मनुष्य पत्थरों को रगड़कर और यज्ञ में लकड़ियों के घर्षण से आग पैदा करते थे। लोक में यही सामान्य अग्नि है।

नित्य व्यवहार में आने वाले अग्नि के भी पांच रूप हैं-ब्राह्म, प्राजापत्य, गार्हस्थ, दक्षिणाग्नि और क्रव्यादाग्नि। बड़े-बड़े यज्ञों में अरणि-मंथन से मंत्र द्वारा जो अग्नि प्रकट हो जाती है, उसे 'ब्राह्माग्नि' कहते हैं। ब्राह्माग्नि को ही ‘आवाहनीय अग्नि' भी कहा जाता है। ब्रह्मचारी बालक का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करते समय यज्ञ आदि के लिए जो अग्नि उपयोग की जाती है, उसे ‘प्राजापत्याग्नि' कहते हैं। विवाह के बाद कुल में जो अग्नि प्रतिष्ठित की जाती है, उसे 'गार्हस्थाग्नि' कहते हैं। मृत्यु के बाद चिता हेतु जो अग्नि प्रयोग की जाती है, वह 'दक्षिणाग्नि' कहलाती है। 'क्रव्यादाग्नि' को त्याज्य कहा गया है।

वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि गति, तेज, प्रकाश, उष्णता, पाचन आदि विविध कार्य एक ही शक्ति के हैं। उस शक्ति के देवता अग्निदेव हैं। इनकी पूजा करने से शक्ति, तेज, कांति और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

अग्निदेव बहुत सी भारतीय जातियों के कुल-पुरुष हैं।'अग्नि पुराण' में अग्निदेव की महिमा का विशद वर्णन है। द्वापर युग में खांडव वन जलाने के समय इंद्र से टक्कर लेने के लिए श्रीकृष्ण को दिव्य चक्र एवं कौमुदी गदा तथा अर्जुन को गांडीव धनुष और दिव्य रथ अग्निदेव ने ही दिलवाए थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai