लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

243 पाठक हैं

’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

राहु का अर्द्धांश केतु


इस समूची सृष्टि का संचालन करने में देवताओं की भी अहम भूमिका है। देवताओं के प्रसन्न होने पर मनुष्य सुख और कुपित होने पर दुख भोगते हैं। कुछ देवताओं की ग्रहों में भी गणना होती है; जैसे-सूर्य-चंद्र देवता भी हैं और ग्रह भी हैं। पृथ्वी से लाखों मील दूर सौरमंडल में स्थित ग्रहों का शुभ-अशुभ प्रभाव पृथ्वी पर निवास करने वाले समस्त मनुष्यों पर भी पड़ता है। मनुष्य चाहकर भी उनके प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता।

नवग्रहों में से केतु नौवां ग्रह है। केतु राहु का ही धड़ है। राहु-केतु का मूल शरीर एक ही था और दानव कुल में उत्पन्न हुआ था। समुद्र-मंथन से निकले अमृत के बंटवारे के समय राहु ने देवता का वेश धारण करके छल से अमृत पी लिया था। सूर्य और चंद्रमा ने उसके छल का भंडाफोड़ कर दिया। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर काट दिया। ऐसे में सिर ‘राहु' कहलाया और धड़ 'केतु' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

ब्रह्मा जी ने राहु-केतु को ग्रह बना दिया लेकिन इनका कोई प्रकाश पिंड नहीं है। वे दोनों अंधकार रूप हैं। भारतीय ज्योतिष के अनुसार ये छाया ग्रह हैं। ग्रह बनने के बाद भी वैर भाव के कारण राहु सूर्य पर और केतु चंद्रमा पर आक्रमण करता रहता है। उनके आक्रमण को 'ग्रहण' कहते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य पर चंद्रमा की और चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने का नाम ‘ग्रहण' है। पूर्णिमा की रात को जब सूर्य और चंद्रमा के बीच में पृथ्वी आ जाती है तब पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है। उसी को चंद्रग्रहण कहते हैं। अतः चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ना अथवा चंद्रमा पर केतु का आक्रमण करना एक ही बात है।

केतु धूम्र वर्ण का है। इनका मुख विकृत है। ये अपने सिर पर मुकुट तथा शरीर पर काला वस्त्र धारण करते हैं। इनकी दो भुजाएं हैं। ये एक हाथ में गदा और दूसरे हाथ में वरमुद्रा धारण किए रहते हैं। गीध इनका वाहन है। आकाश मंडल के वायव्य कोण में केतु का प्रभाव माना गया है। नवग्रह में इनका प्रतीक ध्वजाकार है। राहु की तरह केतु की भी वक्र गति है। इनको एक राशि पर भ्रमण करने में डेढ़ वर्ष लगता है। केतु का विशेष फल 48-54 वर्ष की आयु में प्राप्त होता है। इनकी महादशा सात वर्ष की होती है।

राहु की अपेक्षा केतु सौम्य तथा हितकारी है। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह मनुष्य को यश के शिखर पर पहुंचा देता है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में केतु अशुभ स्थान में हो तो वह अनिष्टकारी हो जाता है। अनिष्टकारी केतु का प्रभाव व्यक्ति को रोगी बना देता है। इनकी प्रतिकूलता से दाद, खाज तथा कष्ट आदि चर्म रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

केतु के अशुभ प्रभाव को रोकने के लिए वैदूर्य (लहसुनिया) अथवा असगंध की जड़ धारण करना शुभ होता है। वैदूर्य, तेल, काले तिल तथा नीले रंग के फूल का दान करने से केतु कल्याण करते हैं। यदि केतु संतान पक्ष में बाधक हो तो उसे शांत करने के लिए कपिला गौ का दान करना चाहिए।


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai