धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
|
9 पाठकों को प्रिय 243 पाठक हैं |
’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
चंद्रघंटा
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम 'चंद्रघंटा' है। नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है। इनका यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्द्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा' कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने की है। इनकी घंटे जैसी ध्वनि से दानव आदि सदा प्रकंपित रहते हैं।
इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है। मां चंद्रघंटा की कृपा से उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियां सुनाई देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं। मां चंद्रघंटा की कृपा से समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं। इनकी आराधना सद्य:फलदायी है। ये भक्तों के कष्ट शीघ्र दूर कर देती हैं। इनका उपासक पराक्रमी और निर्भय हो जाता है।
दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी मां चंद्रघंटा का स्वरूप दर्शन आराधक के लिए अत्यंत सौम्य एवं शांति से परिपूर्ण रहता है। इनकी आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का भी विकास होता है। उसके मुख, नेत्र तथा संपूर्ण काया में कांति-गुण की वृद्धि होती है। उसके स्वर में दिव्यता, अलौकिकता तथा माधुर्य का समावेश हो जाता है। मां चंद्रघंटा के साधक और उपासक जहां भी जाते हैं, लोग उन्हें देखकर शांति और सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे साधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृश्य विकिरण होता रहता है। यह क्रिया साधारण चक्षुओं से नहीं दिखाई देती किंतु साधक और उसके संपर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भली-भांति करते रहते हैं।
साधक को चाहिए कि वह अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतया परिशुद्ध और पवित्र करके मां चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना में तत्पर रहे। उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुख होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं। हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक एवं परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।
|