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सुखमय जीवन के 101 सोपान

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8960
आईएसबीएन :9788131012222

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इस संसार में सभी सुख चाहते हैं, लेकिन इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है, क्योंकि यह सापेक्ष है...

Sukhmay Jeevan Ke 101 Sopan - A Hindi Book by Swami Avdheshanand Giri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस संसार में सभी सुख चाहते हैं, लेकिन इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है, क्योंकि यह सापेक्ष है। जो आज सुख है, वह कल दुख रूप में बदल जाता है, और जो दुख रूप लगता है, वह सुख का कारण बन जाता है।

कुछ विद्वानों ने सुख की परिभाषा अनुकूल प्रतिवेदना के रूप में की है। इस प्रकार दुख का अर्थ है प्रतिकूल संवेदना। और ये संवेदनाएं देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार जहां बदलती हैं वहीं इनकी मात्रा में भिन्नता भी दुख-सुख रूप हो जाती है। गर्मी में ए.सी. राहत देता है। लेकिन अधिक मात्रा होने पर इससे परेशानी भी हो सकती है। सर्दियों में इससे पैदा होने वाली ठंडक तो प्रतिकूल होती ही है। भगवान श्रीकृष्ण ने इसी बात का विवेचन करते हुए कहा है-

मात्रास्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्ण सुख-दुःखदाः
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ! अध्याय:2, श्लोक:14

इंद्रियों और विषयों के संपर्क से प्राप्त होने वाली संवेदनाएं शीत और ऊष्ण का अनुभव कराने वाली तथा सुख-दुख को देने वाली हैं। ये संवेदनाएं आने जाने वाली अर्थात् अनित्य हैं, इसलिए इन्हें सहन कर !

इसके बाद वे कहते हैं -

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ
सुख-दुःख समं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। अध्याय:2 श्लोक:15

और हे पुरुषश्रेष्ठ ! जिसे ये संवेदनाएं-सुख और दुख व्यथित नहीं करतीं वह, इन दोनों में एक समान बना रहने वाला, धीर पुरुष अमरता का अधिकारी हो जाता है। अर्थात् आत्यंतिक सुख (आनंद) को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है।

इसी तरह श्रीकृष्ण ने दुख के कारण की ओर संकेत करते हुए अपना निर्णय स्पष्ट रूप से सामने रखा है कि-

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःख योनय एव ते
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:।। अध्याय:5, श्लोक:22

इंद्रियों और विषयों के संपर्क से पैदा होने वाले भोग ही दुःख का कारण हैं। ये क्योंकि आदि और अंत वाले हैं, इसलिए हे कुंती पुत्र अर्जुन ! बुद्धिमान इनमें रमण नहीं करते अर्थात् इन्हें सदैव रहने वाला नहीं मानते, इनमें शाश्वत सुख की तलाश नहीं करते।

यहां एक व्यावहारिक समस्या है-इंद्रियों और विषयों के संयोग को नकारा भी तो नहीं जा सकता। तो क्या शाश्वत सुख की प्राप्ति व्यवहार में संभव नहीं है ? क्यों नहीं ! ऐसा संभव है। शास्त्रों में ऐसे उदाहरण हैं, जो एक सामान्य व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हुए भी हमेशा अपनी मस्ती में रहे-जीवन्मुक्त कहलाए। श्रीकृष्ण स्वयं भी तो इसी श्रेणी में आते हैं। इसीलिए उन्होंने इस ओर भी संकेत किया है। लेकिन इस स्थिति के लिए एक विशेष प्रकार का मानसिक-आध्यात्मिक प्रशिक्षण जरूरी है। उस कला को जानने के बाद सुख-दुःख दोनों ही अपनी सार्थकता खो देते हैं।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
प्रसादे सर्वदुखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।। अध्याय:2, श्लोक:64-65

आत्मवशी, अर्थात् जिसने स्वयं पर पूर्णरूप से संयम प्राप्त कर लिया है, इंद्रियों द्वारा विषयों से जुड़ता तो है, लेकिन उनमें न तो उसका राग होता है, न ही द्वेष। इसीलिए उसे सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता, बल्कि इन दोनों से परे वह परम प्रसन्नता का अनुभव करता है। यह प्रसाद की स्थिति सब दुःखों (सुखों) से परे की है, इसीलिए इसमें किसी प्रकार का दुःख नहीं रहता-प्रत्यक्ष दुःख की अनुभूति नहीं होती तथा न ही उस दुख की अनुभूति होती है, जो पहले सुख के रूप में भासित होता है।

यहां इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है कि भोगों से प्रात सुख का अंतिम परिणाम दुख ही है। इस प्रकार सुख-दुःख में मूलतः कोई अंतर नहीं है-अंतर मात्रा भर का है। दिखने में भले ही ये दोनों अलग-अलग लगें, असल में एक ही हैं।

ऐसे सुख-दुख में सम रहने वाले, आत्मवशी और सदा प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति की बुद्धि हमेशा स्थिर रहती है।

अब आपको यह स्पष्ट हो गया होगा कि इस पुस्तक में उस ’सुख’ की राह नहीं बताई गई है, बो बाद में आपको पीड़ा दे। आपको शाश्वत सुख, जिसे भारतीय मनीषियों ने आनंद कहा है, की प्राप्ति कराना, सुख के मूल स्रोत की जानकारी देना उद्देश्य है इस पुस्तक का। सुखी होने के लिए यह समझ बहुत जरूरी है।

आप सदा सुखी रहें, यही कामना है हमारी !

- गंगा प्रसाद शर्मा

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