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सलाखों में ख्वाब

प्रमोद तिवारी

प्रकाशक : सचिन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :76
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8963
आईएसबीएन :000000000000

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‘सलाखों में ख्वाब‘ मेरा पहला गजल संग्रह है । इन गजलों में धरती पर पांव जमाने की कोशिश से सर पर पहाड़ उठा लेने के जज्बे तक की एक कहानी भी मैंने टुकड़ों-टुकड़ों में कह ली है...

Ek Break Ke Baad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश



कविता द्वारे...

मैंने कैसी गज़लें कहीं यह किसी के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है । मेरे लिए तो उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मैंनै गज़लें कहीं, कविता से जुड़ा, गीत और कहानियां लिखीं। कविता मेरे जीवन की अब तक की सर्वाधिक चमकदार घटना है । मेरा अच्छा-बुरा जो भी अस्तित्व आज है, वह इस एक घटना के घट जाने से ही है । यदि ऐसा न हुआ होता तो मैं आज जो हूँ कम से कम वह तो नहीं ही होता । जबकि मैं आज के अपने स्वरूप से पूरी तरह संतुष्ट हूँ ।

एक समय मुझ पर ऐसा भी बीता जब मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ था । निःसंदेह आज से कहीं ज्यादा बहुत अधिक । प्रेम की छटपटाहट के साथ गजब की नाराजगी भरी थी जेहन में । हर किसी से कुछ न कुछ कहना था । चाहे उसे जानता हूं या नहीं । मा-बाप,भाई-बहन, दोस्त-दुश्मन, साधु-संत, जाति-धर्म नेता-जनता, शरीफ-बदमाश सभी से मेरा कुछ न कुछ सीधा या दिमागी सरोकार था । सब पर अपनी एक विशिष्ट राय भी थी । मैं तटस्थ नहीं था । एक उबाल था असंयत सा-कि ऐसे में इधर-उधर बौखलाते भावातिरेक को रास्ता मिला धीरे-धीरे बहने का। यह रास्ता दिया कविता ने । और मैं बह चला । फिर तो मेरा बहना - मेरे लिए सर्वोपरि हो गया । यह संग्रह और कुछ नहीं, उसी प्रवाह की एक झलक है । झलक इसलिए कि प्रवाह को समूचा बांध पाना संभव नहीं हो पाता । संभव होता भी होगा तो मेरे लिए नहीं । मैंने पहले ही कहा कविता मेरे जीवन में घटी है। इसलिए मैं ऋणी हूँ उस ‘चोट‘ जिसकी तिलमिलाहट ने मुझे कविता द्वारे दस्तक को मजबूर किया।

‘सलाखों में ख्वाब‘ मेरा पहला गजल संग्रह है । इन गजलों में धरती पर पांव जमाने की कोशिश से सर पर पहाड़ उठा लेने के जज्बे तक की एक कहानी भी मैंने टुकड़ों-टुकड़ों में कह ली है । चूंकि यह कहानी मेरी है और मैं एक आम आदमी हूँ । इसलिए संभव है कि कही-कहीं आपको लगे कि गजलों में कवि आपकी कथा का वाचक बन गया है । यदि ऐसा संभव हुआ तो मैं समझूंगा कि अभिव्यक्ति के नितांत व्यक्तिगत सुखों से आगे भी कवि दायित्वों के प्रति मेरी कलम संवेदनशील है, जो कि भविष्य के लिए बड़े काम की चीज होगा । मेरे लिए भी और आपके लिए भी । अब जबकि अपने प्रथम गजल संग्रह के माध्यम से मैं आपको अपने कहे का साक्षी बनाने का साहस कर रहा हूँ तो जानना भी चाहूंगा कि मेरे जीवन की सर्वाधिक चमकदार घटना का प्रतिफल आपको कैसा लगा । इस अवसर पर गजलों के बारे में कुछ कहने का कोई मतलब नहीं, मेरी दृष्टि में । यह काम आपका है । मैं तो आभार और सिर्फ़ आभार ही व्यक्त कर सकता हूँ, उनका जो मेरी कविता के प्रेरणा स्रोत, मार्ग दर्शक,आलोचक अथवा प्रशंसक बने ।

ईश्वर की कृपा बनी रही तो भविष्य में फिर आपसे इसी तरह भेंट होगी ।

--प्रमोद तिवारी


अनुक्रम


1
मेरे गुनाह पर ये अजब फैसला हुआ,
उसने मुझे सजा दी मगर मैं रिहा हुआ ।
2
सब का बाँध है जज्वात का दरिया भी है,
अब तो दिल खोल के बातें करो, मौक़ा भी है।
3
ये क्यों कहे दिन आजकल अपने खराब हैं,
काटों से घिर गये हैं, समझ लो गुलाब हैं।
4
कुछ न चाहूंगा कभी और मैं इस से आगे,
सिर्फ सच्चाई निकल जाए बहस से आगे ।
5
मालूम था कि दरिया प्यासों को डुबोता है,
मैं तिश्नालब था, सोचा, देखें कि क्या होता है।
6
वो मेरा कौन था क्या उससे था रिश्ता मेरा,
जिसकी महफिल में हुआ करता था चर्चा मेरा।
7
मैं भला हूँ या बुरा रहने दो,
एक सांचे में ढला रहने दो ।
8
हम चुप हैं मगर सारे मुखौटे नजर में हैं,
अब भी तमाम आईने अपने शहर में हैं ।
9
मैं झूम के गाता हूँ, कमजर्फ जमाने में,
इक आग लगा ली है, इक आग बुझाने में ।
10
कागज पे लिख रहा हूँ मैं अपने गुनाह और,
होते हैं तो हो जाए, फ़रिश्ते तबाह और ।
11
मैं उड़ते बादल का एक टुकड़ा, कहीं पे मेरा दयार क्यों हो,
जिसे मयस्सर हों चन्द अपने, उसे हकीकत से प्यार क्यों हो।
12
अंधियारे उजियारे देखे,
सूरज-चाँद सितारे देखे ।
13
नन्हें से इक दिए का बस इतना सफर रहा,
जलने के साथ-साथ ही बुझने का डर रहा।
14
दिल है यादें हैं और गम भी है,
इस कहानी में कहीं हम भी हैं ।
15
आसा है बहुत राहे वफा मान जाएंगे,
दो-चार क़दम चल के दिखा मान जाएंगे।
16
रहना हो मेरे साथ तो रहना जिगर के साथ,
तामीर कर रहा हँ नशेमन शरर के साथ ।
17
एक खिड़की है जिसके परदे पे नजर है मेरी,
और परदे के ठीक पीछे ही सहर है मेरी ।
18
जाने दरिया कहाँ खो गया,
तिश्नालब रेत पर सो गया।
19
हिस्सों-हिस्सों बंटना सीखा अक्स का झंझट छोड़ दिया,
अब क्यों हमसे पूछ रहे हो, किसने दरपन तोड़ दिया।
20
चाहा था दिल को आज मैं रख दूंगा खोलकर,
लेकिन मैं फिर खामोश हूँ थोड़ा सा बोलकर।
21
महफिल की बेरुखी भी नहीं शान भी नहीं,
मैं अजनबी नहीं, मेरी पहचान भी नहीं।
22
विखरा हुआ सामान सजाया भी नहीं है,
कोई बहुत दिनों से घर आया भी नहीं है।
23
शाम ढलते ही चरागों को जला दूँ तो फिर,
इस तरह आग अधेरे में लगा दूँ तो फिर।
24
मेरी हस्ती मिटा पाना नहीं मुमकिन जमाने को,
भला कब लूट पाया है कोई खाली खजाने को।
25
वो चला जाएगा उसकी चाहतें रह जाएंगी,
ज़िन्दगी भर के लिए कुछ आहटें रह जाएंगी।
26
मैं दोस्ती में दोस्तों के सितम सह लूंगा,
दगा न दें तो दुश्मनों के साथ रह लूंगा।
27
वाकई ये कमी तो है,
मुझमें ज़िन्दादिली तो है।
28
हर परिंदा लहूलुहान सा था,
और मौसम सधी कमान सा था।
29
क्यों किसी भी हादसे से कोई घबराता नहीं,
इस शहर को क्या हुआ है, कुछ समझ आता नहीं।
30
थक के हुयी बेहाल जमूरे की जिन्दगी,
कब तक करे कमाल जमूरे की जिन्दगी।
31
हम सबके लिए जेल मदारी के पास है,
बस एक यही खेल मदारी के पास है।
32
घर के भीतर जी भर रो लो, दोस्त यही आजादी है,
पर दरवाजे हँस कर खोलो, दोस्त यही आज़ादी है।
33
मुस्करा कर जो सफर में चल पड़े होंगे,
आज बन कर मील के पत्थर खड़े होंगे।
34
हंसते हैं चेहरे अश्क से तर मेरी गली में,
झुकने को हैं, कटने को हैं, सर मेरी गली में।
35
मैं कुछ तैयारियाँ कर लूँ किसी फरमान से पहले,
जरा सामान ले लूँ आतिशी दूकान से पहले।
36
देख रहा है दुनिया पंछी, भूखा प्यासा पिंजरे का,
उधर साफ मौसम की चाबुक, इधर कुहासा पिंजरे का।
37
ज़िन्दगी मेरे खातिर है क्या, बात जब यह बतानी पड़ी,
फूल से एक आईने पर सिर्फ चट्टान लानी पड़ी।
38
ये पंछी जबसे उड़ कर इश्तहारों तक चले आए,
हमारे घर के मीठे बोल नारों तक चले आए।
39
दिल से जब पत्थरों का डर निकला,
आईना ! ठीक दोपहर निकला।
40
ज़िन्दगी किस कदर हुई लहूलुहान न देख,
तीर की मार देख, कांपती कमान न देख।
41
मुझे अच्छी नहीं लगतीं तेरी हरकत भरी आंखें,
मिला मत वक्त से यूं देर तक हसरत भरी आंखें।
42
यूं ही करे तो याद जमाना भी मेरे यार,
रहता था यहां एक दीवाना भी मेरे यार।
43
ऐसा क्या है खास तुम्हारे अधरों पर,
ठहर गया मधुमास तुम्हारे अधरों पर।
44
पहले मुझे गिराओगे चाकू की नोक पर,
फिर खूब खिलखिलाओगे चाकू की नोक पर।
45
मैंने पहला क़दम उठाया है,
आईना फर्श पर गिराया है।
46
सूख रहे हैं ताल मछलियाँ कहती हैं,
बहुत बुरे हैं हाल मछलियाँ कहती हैं।
47
हाथ हुआ पत्थर का हामी, आंख मिली अंगार लिए,
जबसे मैंने भरी सभा में, दरपन के अधिकार लिए।
48
कौन कहता है दुआएं हैं बेअसर यारो,
देखते-देखते घर हो गया खण्डहर यारो।
49
सफर में गीत हमको हौसले से गुनगुनाने हैं,
हमें खुद रास्ते में मील के पत्थर लगाने हैं।
50
तू आईने में खुद को जरा खिलखिला के देख,
तू देख पर औरों की नजर को बचा के देख।
51
किसी तरह से तो ये मुख्तसर नहीं होती,
अजीब रात है, देखो शहर नहीं होती।
52
सुना है काफिये को काफिये ही खा गया-हद है,
असर इंसान का शायद गजल पर आ गया-हद है।
53
तिश्नगी की हद हुई, वो शख्स घबराने के बाद,
पी गया सारा समंदर, एक पैमाने के बाद।
54
जिस पेड़ के साये ने मुझे हौसला दिया,
कल रात आंधियों ने उसे भी गिरा दिया।
55
जिस मोड़ पर दरिया में गजब का बहाव था,
बहते हुए दिये का वो पहला पड़ाव था।
56
पहले जेहन से होके मेरा ‘रहनुमा‘ गया,
फिर खौफ से ये पूरा बदन थरथरा गया।
57
निकल के देखिए इस बेपनाह कोहरे में,
गुजर न जाए कहीं उम्र एक पिंजरे में।
58
चाहे जितनी सजा मिले,
मुझको मेरी सदा मिले।
59
ये खबर फूल को, घाटी को है, झरने को है,
शाम को डोली पहाड़ों पे उतरने को है।
60
हुआ है शर्मसार इस तरह खताओं पर,
कि चुप है नाखुदा डूबी हुई सदाओं पर।
61
हंसाने की बातें, रुलाने की बातें,
बहुत याद आयीं जमाने की बातें।
62
अब तक हमारी उनसे अदावत नहीं हुयी,
हैरान हूँ किसी को शिकायत नहीं हुयी।
63
जिस वक्त मैं ख्वाबों में अलावों के साथ था,
ये जिस्म मेरा सर्द हवाओं के साथ था।
64
ये जहां पहले उसे यूं याद कर लेता तो था,
वो धुएं के साथ थोड़ी रोशनी देता तो था।
65
ताउम्र बस यही तो सोचता रहा हूँ मैं,
किस-किस की मंज़िलों का रास्ता बना हूं मैं।
66
बोझ ख्वाबों का मेरी आंख ने सहते-सहते,
आज की रात भी फिर काट दी बहते-बहते।
67
किस तरह की तरक्की आखिर,
अपनी गलियों में हम उठा लाये।
68
पल भर का भरोसा भी नहीं अख्तियार में,
फिर भी तमाम उम्र गयी इंतजार में।
69
बस्ती-बस्ती जंगल-जंगल इक बंजारा गाता है,
खाली पेट जगाने वाला भूखा नहीं सुलाता है।
70
मुझे सर पे उठा ले आसमां ऐसा करो यारो,
मेरी आवाज में थोड़ा असर पैदा करो यारो।

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