कविता संग्रह >> काव्य-मुक्तामृत काव्य-मुक्तामृतश्याम गुप्त
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दिन-प्रतिदिन के लौकिक-व्यवहार व जीवन मार्ग पर चलते-चलते व्यक्ति विभिन्न विचारों, घटनाओं, मत-मतांतरों, व्यंजनाओं, वर्जनाओं, प्रश्नों व सामाजिक सरोकारों से दो-चार होता है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
मेरी प्रथम कृति ‘काव्यदूत‘ जहाँ एक विशिष्ट विषय भाव पर
होने के कारण, छन्दोबद्ध व छंदमुक्त रचनाओं का संग्रह थी, वहीं
‘काव्य निर्झरणी‘ विभिन्न विषयों पर छन्दबद्ध तुकांत रचनाओं
का संग्रह है। प्रस्तुत रचना ‘काव्य मुक्तामृत‘ छन्द मुक्त रचनाओं
का संग्रह है, जो मुख्यतः समस्या-प्रधान विषयों पर समय-समय
पर निःसृत मन की भावरूपी मुक्ताओं को पिरोकर बनाई गई
मालिकायें हैं । मेरे विचार से समस्या प्रधान व तार्किक विषयों को
छन्दमुक्त रचनाओं में सुगमता से कहा जा सकता है जो जन
सामान्य के लिये भी सुबोध होतीं हैं ।
दिन-प्रतिदिन के लौकिक-व्यवहार व जीवन मार्ग पर चलते-चलते व्यक्ति विभिन्न विचारों, घटनाओं, मत-मतांतरों, व्यंजनाओं, वर्जनाओं, प्रश्नों व सामाजिक सरोकारों से दो-चार होता है । जिज्ञासु व वैचारिक मन इन सभी को अपने अनुभव, ज्ञान व कर्म से तोलता है । अपने अंतर के आलोक से अपना मत निर्धारित व स्थापित करता है जो स्थापित मतों, विचारों व भावों से पृथक भी हो सकता है और समान भी । वही विचार जब माँ वाग्देवी की कृपा से लेखनी के माध्यम से कागज पर उतरते हैं तो काव्य रचना हो जाते हें । ‘दौड़‘, ‘सीता का निर्वासन‘, ‘‘धर्म एक ही है‘‘, ‘‘जब ईश्वर नहीं था‘‘, आदि रचनाएं इन्हीं विभिन्न विचार बिंदुओं की प्रज्जवलित दीप मालिकायें हैं, यथा
‘‘सभी धर्म एक नहीं हैं
धर्म सिर्फ एक ही है,
प्रेम का धर्म,
जीवन धर्म ।।‘‘ ‘धर्म एक ही है ।‘
‘‘तब ईश्वर नहीं था,
कोई हिन्दू मुस्लिम नहीं था ।
मनुष्य सिर्फ मनुष्य था ।‘‘... ‘जब ईश्वर नहीं था ।‘
‘‘अहल्या व शबरी, सारे समाज की आशंकाए हैं,
सीता, राम की व्यक्तिगत शंका है ।
व्यक्ति से समाज बड़ा होता है
इसीलिये, सीता का निर्वासन होता है ।‘‘ ‘सीता का निर्वासन‘
‘‘तब कविता हो जाती है
मुक्त, छंद से, छंद संसार से ।‘‘ ‘मुक्त छंद कविता‘ ।
‘‘आप लड़िये या झगड़िये,
दोष एक दूसरे पर मढ़िये ।
दोष उसका है न इसका है न तेरा है,
मुझे शूली पर चढ़ा दो दोष मेरा है।।‘‘ ‘दोष मेरा है‘ ।
दिन-प्रतिदिन के लौकिक-व्यवहार व जीवन मार्ग पर चलते-चलते व्यक्ति विभिन्न विचारों, घटनाओं, मत-मतांतरों, व्यंजनाओं, वर्जनाओं, प्रश्नों व सामाजिक सरोकारों से दो-चार होता है । जिज्ञासु व वैचारिक मन इन सभी को अपने अनुभव, ज्ञान व कर्म से तोलता है । अपने अंतर के आलोक से अपना मत निर्धारित व स्थापित करता है जो स्थापित मतों, विचारों व भावों से पृथक भी हो सकता है और समान भी । वही विचार जब माँ वाग्देवी की कृपा से लेखनी के माध्यम से कागज पर उतरते हैं तो काव्य रचना हो जाते हें । ‘दौड़‘, ‘सीता का निर्वासन‘, ‘‘धर्म एक ही है‘‘, ‘‘जब ईश्वर नहीं था‘‘, आदि रचनाएं इन्हीं विभिन्न विचार बिंदुओं की प्रज्जवलित दीप मालिकायें हैं, यथा
‘‘सभी धर्म एक नहीं हैं
धर्म सिर्फ एक ही है,
प्रेम का धर्म,
जीवन धर्म ।।‘‘ ‘धर्म एक ही है ।‘
‘‘तब ईश्वर नहीं था,
कोई हिन्दू मुस्लिम नहीं था ।
मनुष्य सिर्फ मनुष्य था ।‘‘... ‘जब ईश्वर नहीं था ।‘
‘‘अहल्या व शबरी, सारे समाज की आशंकाए हैं,
सीता, राम की व्यक्तिगत शंका है ।
व्यक्ति से समाज बड़ा होता है
इसीलिये, सीता का निर्वासन होता है ।‘‘ ‘सीता का निर्वासन‘
‘‘तब कविता हो जाती है
मुक्त, छंद से, छंद संसार से ।‘‘ ‘मुक्त छंद कविता‘ ।
‘‘आप लड़िये या झगड़िये,
दोष एक दूसरे पर मढ़िये ।
दोष उसका है न इसका है न तेरा है,
मुझे शूली पर चढ़ा दो दोष मेरा है।।‘‘ ‘दोष मेरा है‘ ।
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