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सिक्का एक पहलू दो

सोनल मित्रा

प्रकाशक : हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8997
आईएसबीएन :9789350295267

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प्यार, शादी, परिवार के मसले पर एक अनूठी पहल...

Sikka Ek Pahlu Do - Hindi Book by Sonal Mitra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सम्बन्धों को मज़बूत बनाने के लिये उन्हें समझने की ज़रूरत होती है। किसी भी सम्बन्ध को प्रगाढ़ करने के लिये दोनों ओर के व्यक्तियों को एक दूसरे की भावनाओं को समझना चाहिये। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। जहां हमने अपने सम्बन्ध स्वस्थ रखने होते हैं वहां हम कई बातों को नज़रन्दाज़ कर जाते हैं तभी तो हमारे सम्बन्ध बरसों तक बने रहते हैं।

जो आशाएं हम अपने सम्बन्धों से रखते हैं वही आशाएं सामने वाला भी रखता है। यहां मैं त्याग की या समझौते की बात नहीं कर रही बल्कि बात तालमेल बिठाने की हो रही है। ज़िन्दगी में आपसी सम्बन्धों का महत्व सबसे अधिक होता है। सम्बन्धों को कभी बिगड़ने नहीं देना चाहिये। यह हमारे दिल, दिमाग, सेहत, काम और पैसा हर चीज़ पर अपना असर डालते हैं। सिक्का एक पहलू दो सम्बन्धों को युक्ति से सींचने और उन्हें कुशलता से निभाने के नुक्तों के बारे में हैं।

भूमिका

भारतीय संस्कृति में आठ तरह के विवाह माने गए हैं इनमें से चार को सरकारी मान्यता प्राप्त है और चार को नहीं। ब्रह्म विवाह (दोनों पक्षों की सहमति से समान स्तर के उत्तम लड़के से कन्या का विवाह करना-इस काल में प्रचलित माता-पिता द्वारा तय किया गया विवाह), गन्धर्व विवाह (दुष्यन्त व शकुन्तला का विवाह, अर्जुन व उलूपी का विवाह। परिवार वालों की सहमति के बिना लड़के और लड़की का बिना किसी रीति-रिवाज़ के विवाह कर लेना-आज का प्रेम विवाह), आर्श विवाह (कन्या के माता-पिता को उसका मूल्य दे कर कन्या से विवाह कर लेना-दक्षिण भारत में कहीं-कहीं आज भी प्रचलित है), प्रजापत्य विवाह (कन्या की सहमति के बिना उसका उच्च कुल में विवाह कर देना), इन चारों के रूप आज भी प्रचलित हैं। दैव विवाह (शायद देवदासियाँ इसी श्रेणी में आती हैं-किसी धार्मिक अनुष्ठान में कन्या का विवाह मन्दिर में भगवान से कर देना), असुर विवाह (कन्या खरीद कर विवाह करना), राक्षस विवाह (अपहरण करके जबरदस्ती विवाह करना), पैशाच विवाह (कन्या की मानसिक दुर्बलता, गहरी नींद या मदहोशी का लाभ उठा कर विवाह करना) आदि को कानून और समाज ने कोई मान्यता नहीं दी है।

भारत में विवाह को एक व्यक्ति की ज़िन्दगी का बहुत अहम पायदान माना जाता है। एक नई जिन्दगी की शुरुआत। दो इन्सानों का ही नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन। विवाह से दो परिवारों की भावनाएँ जुड़ी होती हैं। आपस में कसमें खाई जाती है, वायदे किये जाते हैं और सपने देखे जाते हैं। तो फिर क्यों अचानक सब कुछ इतना बदल जाता है कि वे लोग एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। क्यों वायदे तोड़ दिये जाते हैं। आज महिलाएँ दिन-पर-दिन विकास कर रहीं हैं। हर क्षेत्र में उन्होंने नये आयाम और कामयाबी हासिल की है। क्या नहीं है उनके पास, पैसा, शोहरत, इज़्ज़त, उच्च शिक्षा और आज़ादी। पर क्या उन्होंने ज़िन्दगी में शान्ति, सुख या चैन भी पाया है ? वास्तविकता यह है कि आपसी रिश्तों को पहले से बेहतर रूप में जान लेने के बावजूद जटिलता वैसे ही बरकरार है। चाहे ये रिश्ते पति-पत्नी में हों या प्रेमी युगलों में या फिर साथ रहने वाले (लिव-इन) जोड़ों में, हर रिश्ते में खटास आसानी से दिखाई देने लगती है। कहीं अहम तो कही स्वाभिमान टकराता है । पहले आपसी रिश्तों में खटास व अनबन पैदा होती है और फिर वही झगड़े का रूप ले लेता है।

आखिर क्यों ?

आज विवाह के मायने ही बदल गये हैं। पाश्चात्य संस्कृति हमारे देश में फैल रही है। आज दुनिया सिमट कर घरों तक चली आयी है। संस्कृतियाँ भी एक-दूसरे पर अपना प्रभाव छोड़ने लगी हैं। जिसे जिस संस्कृति का जो अच्छा और सुलभ लगता है वह उसे अपना लेता है। पर हम और बुजुर्ग इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं। आज के युवा अपने राज्य से सुदूर क्षेत्रों में या विदेशों में जा कर शिक्षा ग्रहण करके आते हैं, स्वाभाविक है कि उनका ज़िन्दगी को देखने का नजरिया, उनका रहन-सहन, जीवन स्तर और काम करने का वातावरण सब बदल जाता है। उनका दिमाग पिछड़ी बातों, अन्धविश्वासों, रूढ़िवाद और पुराने रीति- रिवाजों को न तो समझ पाता है और न ही स्वीकार कर पाता है। उनके माता-पिता के वक्त से आज का उनका वक्त बिस्कुल बदल चुका है। जब उनके माता-पिता अपनी ज़िन्दगी को सरल और सुविधाजनक बनाने के लिये पुराने उत्पादों को त्याग नये आधुनिक उत्पादों का इस्तेमाल करने लगे हैं तो वे शादी के पुराने रूढ़िवादी रिवाज़ों को त्याग कर नये रिवाज़ स्वीकार करने को तैयार क्यों नहीं हैं ?

आज के युवा को शादी से वे ‘अपेक्षाएँ नहीं जो पहले हुआ करती थीं। सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि कोई शादी क्यों कर रहा है ? उसे शादी से क्या अपेक्षाएँ हैं। पुराने ज़माने की बात और थी, उस समय की प्रथाएँ उस समय के समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर शुरू की जाती थीं। लोग वंश वृद्धि और सुरक्षा के लिये शादी करते थे। क्योंकि लड़कियाँ शिक्षित व स्वावलम्बी नहीं हुआ करती थीं। लोग सोचते थे कि आने वाले कल जब माँ-बाप जीवित न रहेंगे तो कौन उनकी बेटी की देखभाल करेगा ? वह सुरक्षित कैसे रहेगी ? अपना निर्वाह कैसे करेगी ? वह इन सबके लिये अपने पति पर आश्रित होती थीं। पर आज ऐसा नहीं है। आज महिलाएँ नौकरी करने लगी हैं। वह दूसरों पर आश्रित नहीं हैं और न ही उन्हें किसी तरह की सुरक्षा चाहिये। वंश वृद्धि के लिये भी वे शादी नहीं करतीं। उनका शादी का मकसद होता है-शारीरिक व भावनात्मक ज़रूरतें पूरी करना, अपना एक परिवार बनाना जिसमें उसके अपने बच्चे व पति शामिल हों, जहाँ वह आन्तरिक प्यार और खुशी पायें। बाहरी खुशी तो खरीद कर पायी जाती है, कपड़े खरीद लिये, अच्छा खा लिया, सैर-सपाटा कर लिया और मनोरंजन कर खुश हो लिए। दूसरी खुशी होती है अपना घर व परिवार पाना और किसी का बन कर रहना जो भावनात्मक खुशी कहलाती है। जब दोनों में से एक साथी को भी पारिवारिक या भावनात्मक खुशी नहीं मिल पाती तो उसका मन शादी से विमुख हो जाता है।

हरेक को सुखी वैवाहिक जीवन जीने की इच्छा और अधिकार है। पर इसके लिये दोनों साथियों को मेहनत करनी चाहिये। इसके लिये देना-लेना दोनों शामिल होते हैं। यह दो-तरफा लेन-देन होता है जैसे कि अन्य किस्म के लेन-देन होते हैं। आप अपने साथी को खुशी देते हैं और वापस आपको भी उससे खुशी मिलती है। क्योंकि अगर आप विवाह में खुशी तलाश रहे हैं तो आपका साथी भी खुशी तलाश रहा है। उसे खुशी देना आप पर निर्भर करता है। स्वार्थी होने से काम नहीं चलता। शादी के शुरू के दिनों में पहले सब कुछ भला-भला दिखायी देता है और फिर कुछ सालों के बाद यह दिखायी देने वाली खुशी गायब क्यों हो जाती है ? इन्ही सब प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए यह पुस्तक लिखने की ज़रूरत हुई। अगर ज़िन्दगी के अन्य क्षेत्रों में शिक्षा ग्रहण की जा सकती है तो वैवाहिक ज़िन्दगी के बारे में पहले से ही कुछ सीखा क्यों नहीं जा सकता ? विवाह से सम्बन्धित सेवाएँ क्यों नहीं शुरू की जा सकतीं ?

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