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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

उन्होंने दूसरी बार भी, और फिर तीसरी बार भी यह घोषणा प्रज्ञापित की। और संघ के चुप रहने पर घोषित किया गया कि संघ को स्वीकार है।

''अब उपाचार्य आयुष्मान् को उपसम्पदा दें-प्रव्रज्या दें।"

इस पर उपाचार्य बन्धुगुप्त ने दिवोदास से कहा-“आयुष्मान्, क्या उपसम्पदा दू?"

तब दिवोदास ने उठकर स्वीकृति दी। उसने सब वस्त्रालंकार त्याग दिया और पीत चीवर पहिन, संघ के निकट जा दाहिना कन्धा खोलकर एक कन्धे पर उत्तरासंग रख भिक्षु चरणों में वन्दना की-फिर उकहूँ बैठकर हाथ जोड़कर कहा :

''भन्ते संघ से उपसम्पदा पाने की याचना करता हूँ। भन्ते संघ दया करके मेरा उद्धार करे।"

उसने फिर दूसरी बार भी और तीसरी बार भी यही याचना की।

तब संघ की अनुमति से आचार्य बन्धुगुप्त ने तीन शरण गमन से उसे उपसम्पन्न किया।

दिवोदास ने उकहूँ बैठकर-‘बुद्ध शरण गच्छामि।' 'संघं शरण गच्छामि।' ‘धममं शरणां गच्छामि? कहा।

आचार्य ने पुकारकर कहा-''भिक्षुओ! अब यह भिक्षु धर्मानुज रूप में प्रव्रजित और उपसम्पन्न होकर सम्मिलित हो गया है। तुम सब इसका स्वागत करो।" इस पर भिक्षु संघ ने जयघोष द्वारा भिक्षु धर्मानुज का स्वागत किया।

इसके बाद आचार्य ने कहा-''आयुष्मान्, अब तू अपने कल्याण के लिए और जगत् का कल्याण करने के लिए गुह्य ज्ञान अर्जन कर। द्वार पंडित की शरण में जा और विहार प्रवेश कर।"

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