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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

"अकिंचन भिक्षु।।"

"क्या चाहते हो?"

"प्रवेश।"

"तो यह पूर्वी द्वार है। इसका सम्बन्ध शब्दशास्त्र विद्यालय से है। क्या तूने शब्द शास्त्र का अध्ययन किया है? तू मेरे साथ शास्त्रार्थ करने को उद्यत है?"

"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्व सीखना चाहता हूँ।"

"तो भद्र, तू दूसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा। तब दिवोदास दक्षिण द्वार पर गया। यहाँ का द्वारपण्डित प्रज्ञाकर यति था। क्या तू हेतु-विद्या सीखना चाहता है, क्या तूने अभिधर्म कोष पढ़ा है?"

"नहीं आचार्य, मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्व सीखना चाहता हूँ।"

"तो भद्र, तू तीसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा।"

दिवोदास ने तब पच्छिम द्वार पर पहुँचकर घण्टघोष किया। पच्छिम द्वार का

द्वारपण्डित ज्ञानश्री मित्र था। घण्टघोष सुनकर उसने कहा-"भद्र, क्या तू सांख्य और वेद पढ़ना चाहता है, क्या तूने निरुक्त और षडंग पाठ किया?"

दिवोदास ने कहा-"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ, मैं धर्मतत्व सीखना चाहता हूँ।"

"तो भद्र, तू अन्य द्वार पर जा।"

तब दिवोदास उत्तर द्वार पर पहुँचा और घण्टघोष किया। वहाँ का द्वार पण्डित नरोपन्न था। उसने पूछा-"क्या चाहता है भद्र!"

"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्व सीखना चाहता हूं।"

तब द्वारपण्डित ने पूछा-"क्या तू भिक्षु-पातिभिक्ख का पाठ करता है?"

"करता हूँ भन्ते।"

"क्या तू पूर्वकरण और उपोसथ कर्म करता है?"

"करता हूँ भन्ते।"

"तू अन्तरायिक कर्म नहीं करता है?"

"नहीं करता हूँ भन्ते।"

"तो भद्र, तू भीतर आ और प्रथम केन्द्रीय द्वारपण्डित रत्नवज्र की शरण में जा।" दिवोदास ने विहार के भीतर प्रवेश किया। तब वह केन्द्रीय द्वारपण्डित रत्नवज्र के सम्मुख आ बद्धांजलि खड़ा हुआ।

रत्नवज्र कठोर और शुष्क प्रकृति के पुरुष थे। वज्रयान मन्त्र-तन्त्र और सिद्धियों के ज्ञाता प्रसिद्ध थे। रंग उनका काला और आकृति बेडौल थी। उन्होंने भाँति-भाँति के प्रश्न दिवोदास से पूछे। अनेक मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोनों से उसकी परीक्षा ली, और अन्त में उन्होंने उसे अन्तेवासी बना विहार का द्वार खोल दिया। दिवोदास विहार में प्रवेश पा गए। नियमानुसार उनके निवास आदि की व्यवस्था हो गई। यह एक असाधारण कठिनाई थी, जिस पर उन्होंने विजय पाई।

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