अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"अरे अभद्र, गुरु पर सन्देह करता है, तुझे सौ योनि तक विष्ठाकीट बनना पड़ेगा।"
"देखा जाएगा। पर मैं आपका खेचर मुद्रा देखना चाहता हूँ।"
"किसलिए देखना चाहता है?"
"इसलिए कि यह केवल ढोंग है। इसमें सत्य नहीं है।"
"सत्य किसमें है?"
"बुद्ध वाक्य में।"
"कौन से बुद्ध वाक्य रे मूढ़!"
"सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, प्रयत्न, सम्यक् विचार और सम्यक् ध्यान, ये आठ आर्ष सत्य है। जो भगवान् बुद्ध ने कहे हैं।"
"किन्तु, आचार्य तू की मैं?"
'आप ही आचार्य, भन्ते!"
"तो तू मुझे सिखाता है, या तू सीखता है?"
"मैं ही सीखता हूँ भन्ते!"
"तो जो मैं सिखाता हूँ सीख।"
"नहीं, जो कुछ भगवान् बुद्ध ने कहा, वही सिखाइए आचार्य।"
"तू कुतर्की है"
"मैं सत्यान्वेषी हूँ, आचार्य।"
"तू किसलिए प्रव्रजित हुआ है रे!"
"सत्य के पथ पर पवित्र जीवन की खोज में।"
"नहीं आचार्य?"
"क्योंकि वे सत्य नहीं हैं, पाखण्ड हैं।"
"तब सत्य क्या तेरा गृह-कर्म है?"
"गृह-कर्म भी एक सत्य है। इन सिद्धियों से तो वही अच्छा है।"
"क्या?"
“पति-प्राणा साध्वी पत्नी, रत्न-मणि-सा सुकुमार कुमार आनन्दहास्य और सुखपूर्ण गृहस्थ जीवन।"
"शान्त पापं, शान्त पापं!"
“पाप क्या हुआ भन्ते!"
"अरे, तू भिक्षु होकर अभी तक मन में भोग-वासनाओं को बनाए है?"
"तो आचार्य, मैं अपनी इच्छा से तो भिक्षु बना नहीं, मेरे ऊपर बलात्कार हुआ है।"
"किसका बलात्कार रे पाखण्डी!' पाप कर्म का, आप जिसे सिद्धियाँ कहते हैं उस पाखण्ड कर्म का।"
"तू वंचक है, लण्ठ है, तू दण्डनीय है, तुझे मन:शुद्धि के लिए चार मास महातामस में रहना होगा।"
"मेरा मन शुद्ध है आचार्य।"
"मैं तेरा शास्ता हूँ तुझसे अधिक मैं सत्य को जानता हूँ। क्या तू नहीं जानता, मैं त्रिकालदर्शी सिद्ध हूँ!"
"मैं विश्वास नहीं करता आचार्य।"
"तो चार मास महाप्तामस में रह। वहाँ रहकर तेरी मनःशुद्धि होगी। तब तू सिद्धियाँ सीखने और मेरा शिष्य होने का अधिकारी होगा।"
उन्होंने पुकारकर कहा-"अरे किसी आसमिक को बुलाओ।"
बहुत-से शिष्य-बटुक-भिक्षु इस विद्रोही भिक्षु का गुरु-शिष्य सम्वाद सुन रहे थे। उनमें से एक सामने से दौड़कर दो आसमिकों को बुला लाया।
आचार्य ने कहा-"ले जाओ इस भ्रान्त मति को, चार मास के लिए महातामस में डाल दी, जिससे इसकी आत्मशुद्धि हो और सद्धर्म के मर्म को यह समझ सके।"
आसमिक उसे ले चले।
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