अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
|
4 पाठकों को प्रिय 383 पाठक हैं |
आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
बुद्ध के काल में तक्षशिला विद्या और वाणिज्य का केन्द्र था तथा उत्तरी भारत से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। वहाँ के पोक्कसाति राजा ने बुद्ध का यश सुनकर राज्य छोड़ दिया था, और वह तक्षशिला से बुद्ध के पास मगध में जाकर भिक्षु बना था। अशोक ने एक धर्म प्रसारक स्तूप तक्षशिला में ही बनवाया था। मौर्य वंश के बाद तो काश्मीर और गान्धार बौद्धधर्म के केन्द्र बन गए थे। और यह कहा जा सकता है कि ग्रीक और शक जातियों को भारतीय संस्कृति की शिक्षा देने का सबसे बड़ा श्रेय गान्धार के बौद्ध भिक्षुओं को ही है। महावैयाकरण पाणिनि, महादार्शनिक असंग और वसुबन्धु पठान ही थे। कहना चाहिए कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईसा की दसवीं शताब्दी तक, बारह सौ वर्ष का गान्धार-अफगानिस्तान बौद्धधर्म, संस्कृति और साहित्य का केन्द्र रहा। मध्य एशिया और चीन में बौद्धधर्म के प्रसार का श्रेय भी अफगानिस्तान की ही है। उन दिनों चीन और मध्य एशिया का मार्ग कपिशा (कोहे दामन) होकर ही था। इस कारण अफगानिस्तान के लोग मध्य एशिया में केवल वाणिज्य-व्यापार का ही विस्तार न करते थे, धर्म और संस्कृति की देन भी मध्य एशिया को देते थे।
आज के अफगानिस्तान में बुतपरस्ती एक जघन्य काम समझा जाता है। परन्तु कला और संस्कृति का वही स्वर्णयुग अफगानिस्तान का था जब सारा ही अफगानिस्तान बुतपरस्त था। बुतपरस्त वास्तव में फारसी शब्द 'बुद्ध-परस्त’ (बुद्धपूजक) का विकृत रूप है।
चीनी तुर्किस्तान और सोवियत तुर्किस्तान दोनों ही मिलकर मध्य एशिया कहाते हैं। पश्चिमी मध्य एशिया का बुखारा नगर बौद्धधर्म का कभी प्रमुख केन्द्र था। मंगोल लोग आज भी विहार को बुखारा कहते हैं। तुर्क और तत्कालीन दूसरी जातियाँ भी अपनी भाषा में विहार को बुखाटे कहती थीं। इस्लाम के वहाँ आने से प्रथम इस स्थान पर एक बहुत भारी विहार था, जिसके कारण नगर का यह नाम प्रसिद्ध हो गया। अरबों के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इस नगर में छोटी-बड़ी अनेक बुद्ध की मूर्तियाँ बिका करती थीं जिन्हें बुत कहा जाता था। किपचिक मरुभूमि के निवासी और अन्य देशों के यात्री ये मूर्तियाँ खरीद ले जाते थे। उन दिनों तुसार देश में (तुषार), जो वक्षुनदी के दोनों पार हिन्दुकुश और दरबन्द की पहाड़ियों के बीच में था, बौद्ध विहार का जाल बिछा था।
दक्षिणी चीन में पाँचवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का भारी प्रसार हुआ। इस समय यहाँ 21 अनुवादक काम कर रहे थे। इस समय तीर्थयात्रा की भाँति भारत आने का चीन में रिवाज हो गया था। इस समय अनेक भारतीय बौद्ध विद्वान् चीन में और चीनी विद्वान् भारत में आकर सांस्कृतिक आदान-प्रदान कर रहे थे। भारतीय विद्वानों में बुद्धजीव, गुणवर्मा और गुणभद्र परमार्थ प्रमुख थे। सम्राट् ऊ-ती के पुत्र युवान-ची के निजी पुस्तकालय में 40 हज़ार पुस्तकों का संग्रह था।
|