अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
|
4 पाठकों को प्रिय 383 पाठक हैं |
आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
जिस भिक्षु को आचार्य ने महानन्द को ले आने का आदेश दिया था-उसका सुखदास ने पीछा किया। जब वह महानन्द को गुप्त राह से ले चला तो सुखानन्द अत्यन्त सावधानी से उनके पीछे ही पीछे चला। अन्त में वे एक छोटे-से द्वार को पार कर एक अन्धेरे अलिन्द में जा पहुँचे। वहाँ घृत के दीपक जल रहे थे। द्वार को पीछे से बन्द करने की सावधानी नहीं की गई, इससे सुखदास को अनुगमन करने में बाधा नहीं हुई।
वज्रसिद्धि ने आते ही कहा-"क्या समाचार है, महानन्द! तुमने तो बड़ी प्रतीक्षा कराई।"
"आचार्य, मैंने एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोया।"
“तो समाचार कहो।"
"काशिराज के दरबार में हमारी चाल चल गई।" उसने आँख से संकेत करके कहा।
"तो तुम सीधे वाराणसी से ही आ रहे हो।"
"महाराज काशिराज जो यज्ञ कर रहे हैं, उसमें आपको निमन्त्रित करने दूत आ रहा है।"
"वह तो है, परन्तु महाराज ने भी कुछ कहा?"
"जी हाँ, महाराज ने कहा है कि वे आचार्य की कृपा पर निर्भर है।"
वज्रसिद्धि हँस पड़े। हँसकर बोले-"समझा, समझा, अरे दया तो हमारा धर्म ही है, परन्तु धूत पापेश्वर का वह पाखण्डी पुजारी-?"
"सिद्धेश्वर?-वह आचार्यपाद से विमुख नहीं है।"
"तब आसानी से काशिराज का नाश किया जा सकता है। और इन ब्राह्मण के मन्दिर को भी लूटा जा सकता है। जानते हो कितनी सम्पदा है उस मन्दिर में? अरे, शत-शत वर्ष की संचित सम्पदा है।"
"तो प्रभु, सिद्धेश्वर महाप्रभु आपसे बाहर नहीं हैं।"
"तो वाराणसी पर सद्धर्मियों का अधिकार करने का जी में स्वप्न देख रहा हूँ वह अब पूर्ण होगा? इधर श्रेष्ठि धनंजय के पुत्र दिवोदास के भिक्षु हो जाने से सेठ की अटूट सम्पदा हमारे हाथ में आई समझो। इतने से तो हमें पचास हजार सैन्य दल और शस्त्र जुटाना सहज हो जाएगा?"
"अरे, तो क्या सेठ के पुत्र ने दीक्षा ले ली?"
"नहीं तो क्या?" ‘किन्तु आचार्य, वह धोखा दे सकता है, मैं भली भाँति जानता हूँ, उसे सद्धर्म पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है!"
"यह क्या मैं नहीं जानता? इसी से मैंने उसे चार मास के लिए महातामस में डाल दिया है। तब तक तो काशिराज और उदन्तपुरी के महाराज ही न रहेंगे।"
"परन्तु आचार्य, सेठ यह सुनेगा तो वह महाराज को अवश्य उभारेगा। यह ठीक नहीं हुआ।"
"बहुत ठीक हुआ।"
इसी समय एक भिक्षु ने आकर बद्धांजलि ही आचार्य से कहा-"प्रभु, काशिराज के मन्त्री श्री चरणों के दर्शन की प्रार्थना करते हैं।"
वज्रसिद्धि ने प्रसन्न मुद्रा से महानन्द की ओर देखते हुए कहा-"भद्र महानन्द, तुम महामन्त्री को आदरपूर्वक तीसरे अलिन्द में बैठाओ। और कहो कि आचार्य पाद त्रिपिटक सूत्र का पाठ कर रहे हैं, निवृत होते ही दर्शन देंगे।"
महानन्द "जो आज्ञा आचार्य" कहकर चला गया।
वज्रसिद्धि प्रसन्न मुद्रा से कक्ष में टहलते हुए आप ही आप कहने लगा, "बहुत अच्छा हुआ, सब कुछ आप ही आप ठीक होता जा रहा है। यदि काशिराज लिच्छविराज से सन्धि कर ले और सद्धर्मी हो जाय तथा धूत पापेश्वर की सब सम्पत्ति संघ को मिल जाय तो ठीक है, नहीं तो इसका सर्वनाश हो। यदि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाय तो फिर एक बार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में वज़यान का साम्राज्य हो जाय।"
|