अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"इस अभागिनी के भाग्य आपके हाथ में हैं।"
"मैं तुम दोनों को अपने साथ ले जाऊँगा, तथा लिच्छविराज को सौंप दूँगा। माता और भगिनी को पाकर लिच्छविराज प्रसन्न होगे।"
"यह तो असम्भावित-सा भाग्योदय है, जिस पर एकाएक विश्वास ही नहीं होता।''
महाप्रभु ने धीमी तथा दृढ़ वाणी से कहा-"मैं तुम्हें छोड़ दूंगा, महारानी!"
"मेरी पुत्री सहित ?’’
“हाँ।"
"आप धन्य हैं महाप्रभु!"
"परन्तु एक शर्त है।"
"शर्त कैसी?"
"मुझे गुप्त रत्नागार का बीजक दे दो।"
"केसा बीजक?"
"इतनी नादान न बनो महारानी। बस, बीजक दे दी और तुम तथा तुम्हारी कन्या स्वतन्त्र हो।"
"प्रभु, मैं इस सम्बन्ध में कुछ नहीं जानती, मैं लिच्छविराज की पट्टराजमहिषी सुकीर्ति देवी नहीं हूँ, सुनयना दासी हूँ, मैं कुछ नहीं जानती।"
"तुम्हें बीजक देना होगा महारानी!"
"मैं कुछ नहीं जानती।"
"सो अभी जान जाओगी।" उन्होंने कुद्ध स्वर में माधव को पुकारा। माधव आ खड़ा हुआ। महाप्रभु ने कहा-"इस स्त्री को अभी अन्धकूप में डाल दी।"
माधव ने रानी का हाथ पकड़कर कहा-"चलो।"
वज्रसिद्धि ने कहा-"ठहरो माधव।" फिर रानी की ओर देखकर मृदु स्वर से कहा-‘बता दो महारानी, इसी में कल्याण है, मैं तुम्हारा शुभ चिन्तक हूँ!"
"तुम दोनों लोलुप गृद्धों को मैं पहचानती हूँ।" रानी ने सिंहिनी की भाँति ज्वालामय नेत्रों से उनकी ओर देखा-फिर सीना तानकर कहा-"जाओ, मैं कुछ नहीं जानती।"
सिद्धेश्वर ने गरजकर कहा-"तब ले जाओ माधव?"
परन्तु वज्रसिद्धि ने माधव को फिर ठहरने का संकेत करके सिद्धेश्वर के कान में कहा-"अन्धकूप में डालने को बहुत समय है, अभी उसे समय की ढील दो।" फिर उच्च स्वर से कहा-"जाओ महारानी, अच्छी तरह सोच-समझ ली। अन्धकूप कहीं दूर थोड़े ही है।"
उसने कुटिल हास्य करके सिद्धेश्वर की ओर देखा। सुनयना चली गई। और दोनों महापुरुष भी अन्तर्धान हुए। कहने की आवश्यकता नहीं, कि सुखदास ने छिपकर सारी बातें सुन ली थीं। उसने खूब सतर्क रहकर, माता-पुत्री की प्राण रहते रक्षा करने की मन ही मन प्रतिज्ञा की।
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